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________________ षष्ठाध्ययन : प्रत्याख्यान दसबिहे पच्चखाणे पण्णत्ते, तं जहा'प्रणागयमइक्कत, कोडीसहियं नियंटियं चेव / सागारमणागारं, परिमाणकडं निरवसेसं। संकेयं चेव अखाए, पच्चक्खाणं भवे दसहा॥' पिछले अध्ययनों में प्रतिक्रमण एवं कायोत्सर्ग द्वारा पूर्वसञ्चित कर्मों का क्षय कहा गया है / इस छठे अध्ययन में नवीन बंधने वाले कर्मों का निरोध कहा जाता है / अथवा पांचवें अध्ययन में कायोत्सर्ग द्वारा अतिचार रूप व्रत की चिकित्सा का निरूपण किया गया है। चिकित्सा के अनन्तर गुण की प्राप्ति होती है, अत: 'गुणधारण' नामक इस प्रत्याख्यान अध्ययन में मूलोत्तर गुण की धारणा कहते हैं। भविष्य में लगने वाले पापों से निवृत्त होने के लिए गुरुसाक्षी या आत्मसाक्षी से हेय वस्तु के त्याग करने को प्रत्याख्यान कहते हैं। प्रत्याख्यान भविष्यत्कालिक पापों का निरोधक है। प्रकार का है (1) अनागत-वैयावृत्य प्रादि किसी अनिवार्य कारण से, नियत समय से पहले ही तप कर लेना। (2) अतिक्रान्त--कारणवश नियत समय के बाद तप करना / (3) कोटिसहित-जिस कोटि (चतुर्थभक्त आदि के क्रम) से तप प्रारम्भ किया, उसी से समाप्त करना। (4) नियन्त्रित वैयावृत्य आदि प्रबल कारणों के हो जाने पर भी संकल्पित तप का परित्याग न करना / (यह प्रत्याख्यान वज्रऋषभनाराचसंहननधारी अनगार ही कर सकते हैं / ) (5) साकार-जिसमें उत्सर्ग (अवश्य रखने योग्य अण्णत्थणाभोग और सहसागाररूप) तथा अपवाद रूप आगार रखे जाते हैं, उसे साकार या सागार कहते हैं। (6) अनाकार--जिस तप में अपवादरूप आगार न रखे जाएं, उसे अनाकार कहते हैं। (7) परिमाणकृत-जिसमें दत्ति आदि का परिमाण किया जाय / (8) निरवशेष-जिसमें अशनादि का सर्वथा त्याग हो। (9) संकेत-जिसमें मुट्ठी खोलने आदि का संकेत हो, जैसे--- "मैं जब तक मुट्ठी नहीं खोलगा तब तक मेरे प्रत्याख्यान है" इत्यादि / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003496
Book TitleAgam 28 Mool 01 Avashyak Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Mahasati Suprabha
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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