________________ पञ्चमाध्ययन : कायोत्सर्ग] [109 और रौद्र ध्यानों का त्याग कर धर्मध्यान एवं शुक्लध्यान में निरत होना, मन में शुभ भावनाओं का प्रवाह बहाना, आत्मा को अपने शुद्ध मूलस्वरूप में प्रतिष्ठित करना __ 'सो पुण काउस्सग्गो दन्यतो भावतो य भवति, दश्वतो कायचेट्टानिरोहो, भावतो काउस्सगो झाणं / ' --आचार्य जिनदास उत्तराध्यनसूत्र में कायोत्सर्ग को समस्त दुःखों से सर्वथा मुक्त करने वाला कहा गया है / कायोत्सर्ग हो अथवा अन्य कोई क्रिया, भावपूर्वक करने पर ही वास्तविक फलप्रद होती है / ऊपर कायोत्सर्ग का जो महत्त्व प्रदर्शित किया गया है, वह वस्तुत: भावपूर्वक किये जाने वाले कायोत्सर्ग का ही महत्त्व है / भावविहीन मात्र द्रव्य कायोत्सर्ग आत्मविशुद्धि का कारण नहीं होता। इस तथ्य को स्पष्ट करने के लिए एक प्राचार्य ने कायोत्सर्ग के चार रूपों का उल्लेख किया है, जो इस प्रकार हैं 1. उत्थित-उत्थित-कायोत्सर्ग करने वाला साधक जब द्रव्य के साथ भाव से भी खड़ा होता है अर्थात् दुर्ध्यान से हट कर जब धर्म-शुक्लध्यान में रमण करता है, तब वह उत्थित-उत्थित कायोत्सर्ग करता है / यह रूप सर्वथा उपादेय है। 2. उत्थित-निविष्ट-द्रव्य से खड़ा होना, भाव से खड़ा न होना अर्थात् दुर्ध्यान करना / यह रूप हेय है। . 3. उपविष्ट-उत्थित-कोई अशक्त या अतिवृद्ध साधक खड़ा नहीं हो सकता, किन्तु भाव से खड़ा होता है- शुभध्यान में लीन होता है, तब वह कायोत्सर्ग उपविष्ट-उस्थित कहलाता है / यह रूप भी उपादेय है। 4. उपविष्ट-निविष्ट-कोई प्रमादशील साधक जब शरीर से भी खड़ा नहीं होता और भाव से भी खडा नहीं होता तब कायोत्सर्ग का यह रूप होता है / यह वास्तव में कायोत्सर्ग नहीं, किन्तु कायोत्सर्ग का दम्भमात्र है। पंचम आवश्यक रूप कायोत्सर्ग करते समय यद्यपि अन्यान्य पाठों का भी उच्चारण किया जाता है, परन्तु 'लोगरस' का ध्यान ही इसका प्रमुख अंग है / अन्यत्र उल्लिखित विधि से यह सब स्पष्ट हो जाएगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org