________________ बारह व्रतों के अतिचारों का प्रतिक्रमण] [107 तब शुद्ध होऊ एवं बारहवें अतिथिसंविभागवत के पंच अइयारा जाणियव्वा न समायरियव्वा, तं जहा ते पालोऊं सचित्तनिक्खेवणया, सचित्तपिहणया, कालाइक्कमे, परववएसे, मच्छरित्राए। जो मे देवासियो अइयारो को तस्स मिच्छा मि दुक्कडं / भावार्थ-मैं अतिथिसंविभागवत का पालन करने के लिए निर्ग्रन्थ साधुओं को अचित्त, दोष रहित अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य आहार का, वस्त्र पात्र कम्बल पाद-पोंछन, चौकी, पट्टा, संस्तारक औषधि आदि का साधु-साध्वी का योग मिलने पर दान दू तब शुद्ध होऊं, ऐसी मेरी श्रद्धा प्ररूपणा है। यदि मैंने साधु के योग्य अचित्त वस्तु को सचित्त वस्तु पर रखा हो, अचित्त वस्तु को मचित्त वस्तु से ढका हो, भोजन के समय से पहले या पीछे साधु को भिक्षा के लिए प्रार्थना की हो, दान देने योग्य वस्तु को दूसरे को बता कर साधु को दान नहीं दिया हो, दूसरे को दान देते ईर्ष्या की हो, मत्सरभाव से दान दिया हो, तो मैं उसको आलोचना करता हूँ और चाहता हूँ कि मेरा वह सब पाप निष्फल हो। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org