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________________ 106] [आवश्यकसूत्र परिमाण की गई दिशाओं से आगे मन, वचन, काया से न स्वयं जाऊंगा और न दूसरों को भेजूंगा। मर्यादित क्षेत्र में द्रव्यादि का जितना परिमाण किया है, उस परिमाण के सिवाय उपभोग-परिभोग निमित्त से भोगने का त्याग करता है। मन, वचन, काया से मैं उनका सेवन देशावकाशिक व्रत की आराधना में यदि मैंने मर्यादा से बाहर की कोई वस्तु मंगाई हो, मर्यादा से बाहर के क्षेत्र में किसी वस्तु को मंगाने के लिए या लेन-देन करने के लिए किसी को भेजा हो, मर्यादा से बाहर के क्षेत्र में रहने वाले मनुष्य को शब्द करके अपना ज्ञान कराया हो, मर्यादा से बाहर के मनुष्यों को बुलाने के लिए अपना या पदार्थ का रूप दिखाया हो या कंकर आदि फेंककर अपना ज्ञान कराया हो तो मैं आलोचना करता हूँ। मेरा वह सब पाप निष्फल हो। 11. पौषधवत के अतिचार ग्यारहवां पडिपुण्णपोषधव्रत-असणं पाणं खाइमं साइमं का पच्चक्खाण, प्रबंभसेवन का पच्चक्खाण, अमुक मणि-सुवर्ण का पच्चक्खाण, माला-वन्नग-विलेवण का पच्चक्खाण, सत्थ मुसलादिक सावज्ज जोग सेवन का पच्चक्खाण जाव अहोरत्तं पज्जुवासामि दुविहं तिविहेणं न करेमि, न कारवेमि मणसा, वयसा, कायसा, ऐसी मेरी सहहणा प्ररूपणा तो है, पौषध का अवसरे पौषध करू तब फरसना करके शुद्ध होऊं एवं ग्यारहवां प्रतिपूर्णपोषधव्रत का पंच अइयारा जाणियग्वा न समारयन्वा तं जहा ते मालोज-अप्पडिलेहिय-दुप्पडिलेहिय सेज्जासंथारए, अप्पमज्जिय-दुप्पमज्जिय सेज्जासंथारए, अप्पडिले हिय-चुप्पडिलेहिय उच्चारपासवणभूमि, अप्पमज्जिय-दुप्पमज्जिय उच्चारपासवणभूमि, पोसहस्स सम्मं अणणुपालणया, तस्स मिच्छा मि दुक्कडं। भावार्थ-मैं प्रतिपूर्ण पौषधवत के विषय में एक दिन एवं रात के लिए अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य इन चारों प्रकार के आहार का त्याग करता हूँ। अब्रह्मचर्य सेवन का, अमुक मणि-सुवर्ण आदि के आभूषण पहिनने का, फूलमाला पहिनने का, चूर्ण और चन्दनादि के लेप करने का, तलवार आदि शस्त्र और हल, मूसल आदि औजारों के प्रयोग संबंधी जितने सावध व्यापार हैं, उन सबका त्याग करता हूँ / यावत् एक दिन-रात पौषधव्रत का पालन करता हुआ मैं उक्त पाप-क्रियाओं को मन, वचन, काया से नहीं करूगा और न अन्य से करवाऊंगा, ऐसी मेरी श्रद्धा-प्ररूपणा तो है किन्तु पौषध का समय आने पर जब उसका पालन करूगा तब शुद्ध होऊंगा। पौषधव्रत के समय शय्या के लिए जो कुश, कम्बल आदि आसन हैं उनका मैंने प्रतिलेखन और प्रमार्जन नहीं किया हो अथवा यतनापूर्वक अच्छी तरह प्रतिलेखन और प्रमार्जन न किया हो, मल-मूत्र त्याग करने की भूमि का प्रतिलेखन और प्रमार्जन न किया हो अथवा अच्छी तरह से न किया हो तथा सम्यक् प्रकार प्रागमोक्त मर्यादा के अनुसार पौषध का पालन न किया हो तो मैं उसकी आलोचना करता हूँ और चाहता हूँ कि मेरा सब पाप निष्फल हो। 12. अतिथिसंविभागवत के अतिचार बारहवां अतिथिसंविभागवत–समणे निग्गंथे फासुयएसणिज्जेणं असण-पाण-खाइम-साइमवत्थ-पडिग्गह-कंबल-पायपुंछणेणं पडिहारिय-पीढ-फलक-सेज्जा-संथारएणं प्रोसह-मेसज्जेणं पडिलाभेमाणे विहरामि, ऐसो मेरी सद्दहणा प्ररूपणा है, साधु-साध्वी का योग मिलने पर निर्दोष दान दूं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003496
Book TitleAgam 28 Mool 01 Avashyak Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Mahasati Suprabha
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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