________________ समाधान (3)- श्रावक के व्रतों और अतिचारों को एक साथ कहना श्रावकसूत्र है। लेकिन यह विषय बड़ा विचारणीय है। (1) साधु के महाव्रतों में श्रावक के अणुव्रतों का समावेश हो जाता है, इसलिए साधु को श्रावकों के व्रत कहने की आवश्यकता नहीं है। (2) श्रावक को तो साधु होने का मनोरथ अवश्य करना चाहिए, अतः श्रमणसूत्र कहने की आवश्यकता है, परन्तु यदि कहें कि साधु भी श्रावक होने की भावना करे और श्रावक सूत्र को प्रतिक्रमण में कहे तो यह कथन सर्वथा अयोग्य ही होगा। शंका (4) श्रावक श्रमणसूत्र सहित प्रतिक्रमण करते थे या करते हैं, इसका कोई प्रमाण है क्या ? समाधान (4) द्वादश वार्षिक महादुष्काल से धर्मस्खलित जैनों के पुनरुद्धारक श्रावकवरिष्ठ श्रीलोकाशाह गुजरात देश के अहमदाबाद शहर में हुए। उस देश में अर्थात् गुजरात, झालावाड़, काठियावाड़, कच्छ आदि देशों में छह कोटि एवं पाठ कोटि वाले सभी श्रावक श्रमणसुत्र सहित प्रतिक्रमण करते थे एवं करते हैं। सनातन जैन साधुमार्गी समाज के पुनरुद्धारक परम पूज्य श्री लक्जीऋषिजी महाराज के तृतीय पाट पर विराजित हुए परम पूज्य श्री कहनाजीऋषिजी महाराज की सम्प्रदाय के श्रावक श्रमणसूत्र बोलते हैं। बाईस सम्प्रदाय के मूलाचार्य परम पूज्य श्री धर्मदासजी महाराज की सम्प्रदाय के श्रावक एवं मेवाड़ देशधर्मप्रवर्तक पूज्य श्री एकलिंगदासजी महाराज की सम्प्रदाय के श्रावक श्रमणसूत्र सहित प्रतिक्रमण करते हैं। उपर्युक्त शंका-समाधन से सिद्ध होता है कि श्रावक को श्रमणसूत्र सहित प्रतिक्रमण करना चाहिए। श्रमणसूत्र के पाठों के विना श्रावक की क्रिया पूरी तरह शुद्ध नहीं हो सकती है। क्योंकि श्रावकों को अवश्य जानने योग्य विषय और पाचरण करने योग्य विषय श्रावकसूत्र में हैं। प्राचीन काल के श्रावक श्रमणसूत्र सहित प्रतिक्रमण करते थे, वर्तमान में भी कुछ श्रावक श्रमणसूत्र सहित प्रतिक्रमण करते हैं और जो श्रमणसूत्र सहित प्रतिक्रमण नहीं करते हैं, उन्हें अब करना चाहिए / प्रस्तुत संस्करण आवश्यकसूत्र का प्रस्तुत संस्करण आगम प्रकाशन समिति द्वारा प्रकाशित किया जा रहा है। इस समिति की आयोजना हमारे स्वर्गीय गुरुदेव पूज्य युवाचार्य श्री 'मधुकर' मुनिजी महाराज द्वारा की गई थी / गुरुदेव का यह विचार था कि मल आगमों का प्रकाशन ऐसी पद्धति से किया जाए जिससे सर्वसाधारण प्रागमप्रेमी जनों को भी उनका स्वाध्याय कर सकना सरल हो। यह कोई सामान्य संकल्प नहीं था। एक भगीरथ-अनुष्ठान था, मगर महान् संकल्प के धनी गुरुदेव ने इसे कार्य रूप में परिणत किया और आपके निर्देशन में अनेक आगमों का प्रकाशन हो भी गया / किन्तु दुःख का विषय है कि गुरुदेव बीच में ही स्वर्ग सिधार गए। तत्पश्चात् भी अनेक मुनिवरों और उदार सद्गृहस्थों के महत्त्वपूर्ण सहयोग से गुरुदेव द्वारा प्रारब्ध प्रकाशन-कार्य अग्रसर हो रहा है। अब यह प्रकाशन-कार्य गुरुदेव युवाचार्यश्री के प्रति एक प्रकार से श्रद्धाञ्जलि-स्वरूप ही समझना चाहिए / अावश्यकसूत्र के सम्पादन में हमारी गुरुणीजी म. अध्यात्मयोगिनी, प्रशस्तवात्सल्यमूर्ति, सुमधुरभाषिणी, परमविदुषी पूज्य श्री उमराबकूवरजी म. सा. ने मेरा पथ-प्रदर्शन किया है। तपोमूर्ति श्री उम्मेदवरजी म. तथा अन्य साध्वी-मंडल का सहयोग प्राप्त हआ है। उपाध्याय कविवर्य श्री अमरमुनिजी म. आदि द्वारा सम्पादित संस्करणों का भी इसमें यथास्थान उपयोग किया गया है। इन सभी के सहयोग के लिए मैं अतीव आभारी हूँ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org