________________ चतुर्थ अध्ययन : प्रतिक्रमण] [89 इन सम्मत्तस्स पंच अइयारा पेयाला जाणियध्वा न समायरियव्या, तंजहा ते आलोउं-संका, कंखा, वितिगिच्छा, पर-पासंडपसंसा, परपासंडसंथयो। इस प्रकार श्री समकित रत्न पदार्थ के विषय में जो कोई अतिचार लगा हो तो पालोऊ१. श्री जिनवचन में शंका की हो, 2. परदर्शन की आकांक्षा की हो, 3. परपाखंडी की प्रशंसा की हो, 4. परपाखंडी का परिचय किया हो, 5. धर्मफल के प्रति सन्देह किया हो, ऐसे मेरे सम्यक्त्व-रत्न पर मिथ्यात्व रूपी रज-मैल लगा हो तो तस्स मिच्छा मि दुक्कडं। भावार्थ-राग-द्वेष आदि प्राभ्यन्तर शत्रुओं को जीतने वाले वीतराग अरिहंत भगवान् मेरे देव हैं, जीवन पर्यन्त संयम की साधना करने वाले निर्ग्रन्थ गुरु हैं तथा वीतरागकथित अ श्री जिनेश्वर देव द्वारा उपदिष्ट अहिंसा, सत्य आदि ही मेरा धर्म है / यह देव, गुरु, धर्म पर श्रद्धास्वरूप सम्यक्त्व व्रत मैंने यावज्जीवन के लिए ग्रहण किया है एवं मुझको जीवादि पदार्थों का परिचय हो, भली प्रकार जीवादि तत्त्वों को तथा सिद्धान्त के रहस्य को जानने वाले साधुओं की सेवा प्राप्त हो, सम्यक्त्व से भ्रष्ट तथा मिथ्यात्वी जीवों की संगति कदापि न हो, ऐसी सम्यक्त्व के विषय में मेरी श्रद्धा बनी रहे। मैंने वीतराग के वचन में शंका की हो, जो धर्म वीतराग द्वारा कथित नहीं है, उसकी आकांक्षा की हो, धर्म के फल में संदेह किया हो, या साधु-साध्वी आदि महात्माओं के वस्त्र, पात्र, शरीर आदि को मलिन देखकर घृणा की हो, परपाखण्डी का चमत्कार देखकर उसकी प्रशंसा की हो तथा परपाखण्डी से परिचय किया हो तो मैं उसकी आलोचना करता हूँ। मेरा वह सब पाप निष्फल हो / गुरु-गुरण-स्मरणसूत्र पंचिदिय-संवरणो, तह नवविह-बंभचेर-गुत्तिधरो। चउविह-कसाय-मुक्को, इअ अट्ठारस-गुणेहिं संजुत्तो।। पंच महन्वय-जुत्तो, पंचविहायार-पालण-समत्थो। पंच-समिओ-तिगुत्तो, छत्तीसगुणो गुरू मझ॥ भावार्थ-पांच इन्द्रियों के वैषयिक चांचल्य को रोकने वाले, ब्रह्मचर्य की नवविध गुप्तियों को-नौ वाड़ों को धारण करने वाले, क्रोध आदि चार प्रकार के कषायों से मुक्त इस प्रकार अठारह गुणों से संयुक्त, अहिंसा आदि पांच महाव्रतों से युक्त, पांच प्राचारों को पालने में समर्थ, पांच समिति और तीन गुप्ति को धारण करने वाले, इस प्रकार उक्त छत्तीस गुणों वाले श्रेष्ठ साधु मेरे गुरु हैं। दोहा अनन्त चौबीसी जिन नमू, सिद्ध अनन्ते कोड़। केवलज्ञानी गणधरा, बन्दू बे कर जोड़ / / 1 / / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org