________________ 18] [आवश्यकसूत्र ग्यारह अंग-प्राचारांग, सूयगडांग, ठाणांग, समवायांग, विवाह-पन्नत्ति (भगवती), णायाधम्मकहा (ज्ञाताधर्मकथा), उपासकदसा, अंतगडदसा, अणुत्तरोववाई, पाहावागरणा (प्रश्नव्याकरण), विवागसुयं (विपाकश्रुत) / बारह उपांग----उववाई, रायप्पसेणी, जीवाजीवाभिगम, पन्नवणा, जम्बुदीवपन्नत्ति, चन्दपन्नत्ति, सूरपन्नत्ति, निरयावलिया, कप्पवडंसिया, पुप्फिया, पुष्फचूलिया, वह्निदशा। चार मूलसूत्र-उत्तरज्झयणं ( उत्तराध्ययन ), दसवेयालियसुत्तं (दशवैकालिकसूत्र) गंदी सुत्तं (नन्दीसूत्र) अणुप्रोगद्दार (अनुयोगद्वार)। __चार छेदसूत्र----दसासुयक्खंधो (दशाश्रुतस्कंध), विहक्कप्पो (बृहत्कल्प), ववहारसुत्त (व्यवहारसूत्र), णिसीहसुत्तं (निशीथसूत्र) और बत्तीसवां आवस्सगं (आवश्यक) तथा सात नय, चार निपेक्ष, स्व स्वमत और परमत के जानकार, जिन नहीं पर जिन सरीखे, केवली नहीं पर केवली सरीखे / ऐसे श्री उपाध्याय जी महाराज मिथ्यात्व रूप अंधकार के मेटनहार, समकित रूप उद्योत के करनहार, धर्म से डिगते हए प्राणी को स्थिर करे, सारए, वारए, धारए, इत्यादि अनेक गुण रके सहित हैं ऐसे श्री उपाध्याय जी महाराज आपकी दिवस एवं रात्रि सम्बन्धी अविनय पाशातना की हो तो बारम्बार हे उपाध्याय जी महाराज ! मेरा अपराध क्षमा करिये, हाथ जोड़, मान मोड़, शीश नमाकर, तिक्खुत्तो के पाठ से 1008 बार नमस्कार करता हूँ (करती हूँ) / यावत् भव-भव सदा काल शरण हो। पांचवें पद ‘णमो लोए सव्वसाहणं' अढ़ाई द्वीप पन्द्रह क्षेत्र रूप लोक में सर्व साधुजी महाराज जघन्य दो हजार करोड़, उत्कृष्ट नव हजार करोड़ जयवन्त विचरें, पांच महाव्रत, पांच इन्द्रिय जीतें चार कषाय टालें, भावसच्चे, करणसच्चे, जोगसच्चे, क्षमावन्ता वैराग्यवन्ता, मन समाधारणिया, वयसमाधारणिया, कायसमाधारणिया, नाणसंपन्ना, दसणसंपन्ना, चारित्रसंपन्ना, वेदनीयसमाहियासनीया, मरणान्तियसमाहियासनीया, ऐसे सत्ताईस गुण करके सहित हैं / पाँच प्राचार वाले, छ: काय को रक्षा करें, पाठ मद छोड़ें, दश प्रकार यति धर्म धारें, बारह भेदे तप करें, सत्रह भेदे संयम पालें, बावीस परिषह जीतें, बयालीस दोष टालकर आहार पानी लेवें, संतालीस दोष टालकर भोग, बावन अनाचार टालें, तेड़िया पावे नहीं, नेतिया जीमे नहीं, सचित्त के त्यागी, अचित्त के भोगी इत्यादि मोह ममता रहित हैं। ऐसे मुनिराज महाराज आपकी दिवस सम्बन्धी अविनय पाशातना की हो तो बारम्बार हे मुनिराज ! मेरा अपराध क्षमा करिये। हाथ जोड़, मान मोड़, शीश नमाकर, तिक्खुत्तो के पाठ से 1008 बार नमस्कार करता हूँ (करती हूँ), यावत् भव-भव में सदा काल शरण हो / दर्शनसम्यक्त्व का पाठ अरिहन्तो मह देवो, जावज्जीवं सुसाहुणो गुरुणो। जिणपण्णत्तं तत्तं, इय सम्मत्तं मए गहियं // परमत्थसंथवो वा सुदिट्ठपरमत्थसेवणा वादि / वावण्ण-कुदंसण-वज्जणा य सम्मत्तसद्दहणा / / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org