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________________ चतुर्य अध्ययन : प्रतिक्रमण है। कहीं धन का मोह है तो कहीं पुत्र का, कहीं स्त्री का मोह है तो कहीं वस्त्राभूषणों का / मोहममत्व बाहर में दिखाई देने वाली चीज नहीं है कि जिसे हाथ में लेकर बताया जा सके। ये तो एक प्रकार के भाव हैं। जब कर्मबन्ध होता है चाहे वह मोहनीय का हो, चाहे अन्य कर्मों का, तब आत्मा के साथ अनन्त-अनन्त कर्मवर्गणाओं का होता है। उनकी अनेक पर्यायें हैं, न्यूनाधिक अवस्थाएँ हैं / मोह बहुरूपिया है। वह अनेक रूपों में आता है। इन्द्रजाल भी उसके सामने तुच्छ है। उसके सामने रावण की बहुरूपिणी या बहुसारिणी विद्या भी नगण्य है। मोह को पहचानना बड़ा कठिन है। महामोहनीय कर्म की स्थिति भी जघन्य अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट 70 करोड़ाकरोड़ सागरोपम की है, जो सब कर्मों की स्थिति से अधिक है। यहाँ महामोहनीय कर्म के बंध के मुख्य तीस स्थान अर्थात् कारण प्ररूपित किए गए हैं। इन तीस महामोहनीय के कारणों में से किसी भी कारण से जो कोई अतिचार किया गया हो तो मैं उससे निवृत्त होता हूँ। सिद्धों के 31 गुण आदिकाल अर्थात् सिद्ध अवस्था की प्राप्ति के प्रथम समय से ही सिद्धों में रहने वाले गुणों को सिद्धादिगुण कहते हैं। आठ कर्मों की इकतीस प्रकृतियाँ नष्ट होने से ये गुण प्रकट होते हैं / वे इकतीस गुण निम्नलिखित हैं१. ज्ञानावरणीय-कर्म की पांच प्रकृति नष्ट होने के कारण 1. क्षीणमतिज्ञानावरण 2. क्षीणश्रुतज्ञानावरण 3. क्षीणअवधिज्ञानावरण 4. क्षीणमन:पर्यवज्ञानावरण 5. क्षीणकेवलज्ञानावरण 2. दर्शनावरणीय-कर्म की नौ प्रकृतियों के क्षय से 1. क्षीणचक्षुदर्शनावरण 2. क्षीणप्रचक्षुदर्शनावरण 3. क्षीणअवधिदर्शनावरण 4. क्षीणकेवलदर्शनावरण 5. क्षीणनिद्रा 6. क्षीणनिद्रानिद्रा 7. क्षीणप्रचला 8. क्षीणप्रचलाप्रचला 9. क्षीणस्त्यानगृद्धि 3. वेदनीय-कर्म की दो प्रकृतियों के क्षय से--. 1. क्षीणसातावेदनीय 2. क्षीणप्रसातावेदनीय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003496
Book TitleAgam 28 Mool 01 Avashyak Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Mahasati Suprabha
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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