________________ व्यक्ति पाप को स्वीकार कर लेता है उसका पाप कम हो जाता है। पापमोचन के लिए प्रात्मापराध को स्वीकार करना सर्वप्रथम आवश्यक था। इसे ही जैनपरम्परा में पालोचना कहा है। गौतमधर्मसत्र और मनुस्मृति में लिखा है कि ब्रह्मचर्याश्रम में विद्यार्थी के द्वारा सम्भोग का अपराध होने पर सात घरों में भिक्षा मांगते समय अपने दोष की घोषणा करनी चाहिए / पाप होना उतना बुरा नहीं जितना पाप को पाप न समझना। मनुस्मृति' विष्णुधर्मोत्तर' और ब्रह्मपुराण' में स्पष्ट रूप से लिखा है कि व्यक्ति का मन जितना ही अपने दुष्कर्म को घणित समझता है उतना ही उसका शरीर पाप से मुक्त हो जाता है। यदि व्यक्ति पापकृत्य करने के पश्चात भी पश्चात्ताप नहीं करता है तो पाप से मुक्त नहीं हो सकता / उसे मन में यह संकल्प करना चाहिए कि मैं पुनः यह कार्य नहीं करूगा / प्रायश्चित्तविवेक ग्रन्थ 4 में अंगिरा की एक युक्ति दी है-पापों को करने के उपरान्त यदि व्यक्ति अनुताप में डबा हुआ हो और रातदिन पश्चात्ताप कर रहा हो तो वह प्राणायाम से पवित्र हो जाता है। प्रायश्चित्तप्रकाश का मत है केवल पश्चात्ताप पापों को दूर करने के लिए पर्याप्त नहीं, अपितु उससे पापी प्रायश्चित्त करने के योग्य हो जाता है। मनुस्मृति, बोधायनधर्मसत्र, वसिष्ठस्मृति, अभिशंखस्मृति आदि में कहा है यदि प्रतिदिन व्यक्ति ओंकार के साथ सोलह प्राणायाम करे तो एक मास के उपरान्त भ्रूणहत्या के पाप से मुक्त हो जाता है। विष्णुधर्मसत्र में यह भी लिखा है कि तीन प्राणायामों के सम्यक सम्पादन से रात या दिन में किये गये सभी पाप नष्ट हो जाते हैं। छान्दोग्योपनिषद, मुण्डकोपनिषद 12 में तप को यज्ञ से ऊपर माना है। गौतम'३ ने पाप के स्वरूप के अनुसार तप की निम्न अवधियां बताई हैं--एक वर्ष, छह मास, तीन मास, दो मास, एक मास, चौबीस दिन, बारह दिन, छह दिन, तीन दिन और एक रात / आचार्य मनु१४ ने घोषणा की 1. मनुस्मृति 11/229-30 2. विष्णुधर्मोत्तर 2/73/231-33 __ब्रह्मपुराण 218/5 प्रायश्चित्तविवेक ग्रन्थ, पृ० 30 प्रायश्चित्तविवेक, पृ० 30 मनुस्मृति 11/248 बोधायनधर्मसूत्र 4/1/31 वसिष्ठस्मृति 26/4 9. अभिशंखस्मृति२/५, 12/18-19 10. विष्णुधर्मसूत्र 55/2 11. छान्दोग्योपनिषद् 5/10/1-2 12. मुण्डकोपनिषद् 10/154/2 13. गौतमधर्मसूत्र 17/17 14. मनुस्मृति 11/239-241 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org