________________ कि जो महापातकों एवं अन्य दुष्कमों के अपराधी होते हैं वे सम्यक तप से पापमुक्त हो जाते है। जैन साधना' पद्वति में भी पाप से मुक्त होने के लिए विविध प्रकार के तपों का उल्लेख किया गया है। वैदिक ऋषियों ने पाप से मुक्त होने के लिए होम, जप की साधना, दान, उपवास, तीर्थयात्रा आदि अनेक प्रकार बताये हैं। वैदिक साहित्य में प्रायश्चित्ति और प्रायश्चित्त ये दो शब्द व्यवहृत हुए हैं। तैत्तिरीयसंहिता में प्रायश्चित्ति शब्द का प्रयोग अनेक बार हुआ है। यह शब्द वहाँ पर पाप के प्रायश्चित्त के अर्थ में ही प्रयुक्त हुआ है / अथर्ववेद वाजसनेयीसहिता, ऐत्तिरीयब्राह्मण, शतपथब्राह्मण' कौषीतकिब्राह्मण में प्रायश्चित शब्द का प्रयोग हुआ है। प्रापस्तंबरौतसूत्र शांखायनधीतसूत्र में प्रायश्चित्ति और प्रायश्चित्त ये दोनों शब्द दिये हैं। प्रायश्चित्तविवेक'. ग्रन्थ में प्रायश्चित्त की व्युत्पत्ति प्रायः--तप और चित्त-संकल्प अर्थात् प्रायश्चित्त का सम्बन्ध पापमोचन हेतु तप का संकल्प करना / बाग्भट्टो याज्ञवल्क्यस्मृति" में प्रायः का अर्थ पाप और चित्त का अर्थ शुद्धिकरण है। हेमाद्रि'२ ने एक अज्ञात भाष्यकार की व्याख्या को उद्धत कर लिखा है प्राय: का अर्थ विनाश है और चित का अर्थ संधान है। अर्थात प्रायश्चित्त का अर्थ हआ जो नष्ट हो गया है उसकी पूर्ति करना / अत: पापक्षय के लिए नैमित्तिक कार्य है। बृहस्पति आदि विज्ञों ने पाप के दो प्रकार किये हैं। एक कामकृत है अर्थात् जो जान-बूझकर किया जाता है। दूसरा अकामकृत है जो बिना जाने-बूझे हो जाय / अकामकृत पापों प्रायश्चित्त के द्वारा नष्ट किया जा सकता है। पर कामकृत पाप को प्रायश्चित्त के द्वारा नष्ट किया जा सकता है या नहीं? इस सम्बन्ध में विज्ञों में अत्यधिक मतभेद रहा है। मनुस्मृति'४ में और याज्ञवल्क्यस्मृति में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि प्रायश्चित्त या विद्याध्ययन से अनजान में किये गये पापों का विनाश होता है। याज्ञवल्क्यस्मृति६ में लिखा है कि जान 1. उत्तराध्ययन 37/27 2. तैत्तिरीयसंहिता 2/1/2/4, 2/1/2/4, 3/1/3/2-3, 5/1/9/3, एवं 5/3/12/1 3. अथर्ववेद 14/1/30 वाजसनेयीसंहिता 39/12 ऐत्तिरीयब्राह्मण५/२७ शतपथब्राह्मण 4/5/7/1, 7/1/4/9, 9/5/3/8 एवं 12/5/1/6 कौषीतकिब्राह्मण 5/9/6/12 आपस्तंबश्रौतसूत्र 3/10/38 शांखायनश्रौतसूत्र 3/19/1 10. प्रायश्चित्तविवेक पृ० 2 11. याज्ञवल्क्यस्मृति 3/206 12. हेमाद्रि प्रायश्चित्तविवेक 10 999 13. धर्मशास्त्र का इतिहास भाग 3 पृ० 1045 14. मनुस्मृति 11/45 15. याज्ञवल्क्यस्मृति 3/226 16. याज्ञवल्क्यस्मृति 3/226 ( 62 ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org