________________ जाना / प्रमाण और आगमोक्त परिमाण से अधिक उपधि रखने का निषेध किया गया है / सचित्त भूमि पर और अन्य विराधना वाले स्थानों पर मल-मूत्र विसर्जन करने का निषेध है। सोलहवें उद्देशक में जिन-जिन बातों की चर्चा की गई है और जिन-जिन कार्यों का निषेध किया गया है, उसकी चर्चा पाचारांग द्वितीय श्रुतस्कन्ध, बृहत्कल्प और दशाश्रुतस्कन्ध में भी है। आगम-साहित्य में यत्र-तत्र साधक को सावधान किया गया है कि वह इस प्रकार की प्रवत्ति न करे जो संयमी जीवन को विकृत बनाये। सत्रहवां उद्देशक सत्रहवें उद्देशक में 155 सूत्र हैं। किन्हीं-किन्हीं प्रतियों में 151 सूत्र मिलते हैं। जिन पर 59045996 गायाओं का भाष्य है। कुतूहल से त्रस प्राणियों को रस्सी आदि से बांधने और खोलने का निषेध है। कुतूहल से अनेक प्रकार की मालाएँ, विविध प्रकार की मालाएं, कड़े, ग्राभूषण बनाने रखने का निषेध है। विविध प्रकार के वस्त्रों का भी इसमें उल्लेख हुया है। श्रमण को कुतूहलवृत्ति से रहित गम्भीर स्वभाव वाला होना चाहिए। कुतुहलवृत्ति से लोकापवाद भी होता है। श्रमण और श्रमणियों का गहस्थों के द्वारा परिकर्म करवाने का, बन्द वर्तन आदि खुलवाकर आहार लेने का, सचित्त पृथ्वी पर रखे हए आहार को लेने का, तत्काल बने हुए अचित्त शीतल जल लेने का और आचार्य पद योग्य मेरे शारीरिक लक्षण हैं, इस प्रकार कहने का निषेध किया गया है। विविध वाद्य बजाना, हंसना, नत्य करना, पशुओं की तरह आवाज निकालना, विविध प्रकार के वाद्यों को सुनने के लिए ललकना, शब्दश्रवण के प्रति आसक्ति रखना इसके लिए प्रस्तुत उद्देशक में लघु मासी प्रायश्चित्त का उल्लेख है। आचारांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध में इस प्रकार की संयमसाधना-विरुद्ध प्रवृत्ति करने का निषेध है। प्रत्येक अध्याय में इसी बात पर बल दिया गया है। सर्वत्र संयमी साधक के लिए बहुत ही निष्ठा के साथ नियमोपनियम के पालन पर बल दिया गया है। अठारहवां उद्देशक अठारहवें उद्देशका में 73 सुत्र हैं। किन्हीं-किन्हीं प्रति में 74 सूत्र भी हैं। जिन पर 5997-6027 माथानों का भाष्य है। एक से लेकर बत्तीस सूत्र तक नौकाविहार के सम्बन्ध में विविध दृष्टियों से चिन्तन किया गया है। यों तो श्रमण अकाय के जीवों की विराधना का पूर्ण रूप से त्यागी होता है फिर वह नौकाविहार कैसे कर सकता है ? पर आचारांगसूत्र, बृहत्कल्प और दशाश्रुतस्कन्ध में अपवाद रूप से नौकाविहार करने का भी विधान है। पर यह स्मरण रखना होगा कि वह नौका परमित जलमार्ग के लिए ही है। आगम में बताये हुए या आगमों में निर्दिष्ट कारणों से ही वह उसका उपयोग करता है / प्रस्तुत ग्रन्थ के विवेचन में विवेचनकार ने उस पर विस्तार से चर्चा की है। आचारांग द्वितीय श्रुतस्कन्ध में भी नौकाविहार के विधि-निषेध हैं। सूत्र 33 से 73 तक वस्त्र सम्बन्धी दोषों के सेवन का उल्लेख है। इत्यादि प्रवत्तियों का लघचौमासी प्रायश्चित्त कहा गया है। नौका और वस्त्र इन दो के सम्बन्ध में हो प्रस्तुत उद्देशक के चर्चा है। उन्नीसवां उद्देशक उन्नीसवें उद्देशक में 35 सूत्र हैं। किन्हीं-किन्हीं प्रतियों में 40 सूत्र भी मिलते हैं। जिन पर 60286271 गाथाओं का भाष्य है / औषध के लिए क्रीत आदि दोष लगाना, विशिष्ट औषध की तीन मात्रा से अधिक लाना, उसे विहार में साथ रखना, औषध के परिकर्म सम्बन्धी दोषों का सेवन करना, पूर्व सन्ध्या, पश्चिम सन्ध्या, ( 54 ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org