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________________ अपराह्न मध्याह्न का समय और अर्धरात्रि के समय चार महामहोत्सव और उसके पश्चात चार प्रतिपदा के दिन स्वाध्याय करने का निषेध है / कालि कसूत्र की चार प्रहरों में स्वाध्याय करने का वर्णन है। बत्तीस प्रकार के अस्वाध्याय के समय स्वाध्याय करना / शारीरिक अस्वाध्याय के समय स्वाध्याय करना। प्रागमोक्त क्रम से सूत्रों की वाचना न देना, आचारांग आदि की वाचना पूर्ण किये बिना ही निशीथ आदि छेदसूत्रों की वाचना प्रारम्भ करना अपात्र को बाचना देना पात्र को वाचना नहीं देना समान योग्य व्यक्तियों को वाचना देने में पक्षपात करना प्राचार्य, उपाध्याय द्वारा वाचना लिए बिना ही स्वयं वाचना ग्रहण करना अन्य मिथ्यात्वियों को अन्यतीथियों को पावस्थादि को वाचना देने आदि का निषेध किया गया है। प्रस्तुत उद्देशक के प्रथम सात सूत्रों में औषध आदि के सम्बन्ध में बताया है। उसके पश्चात् आठवें सूत्र से पैतीसवें सूत्र तक स्वाध्याय अध्ययन और अध्यापन के सम्बन्ध में वर्णन है। स्थानांग, आवश्यकसूत्र, व्यवहारसूत्र और बहत्करूप में भी इन बातों के सम्बन्ध में विविध स्थानों पर प्रकाश डाला गया है। प्रदत्त वाचना का इसमें स्पष्ट रूप से निषेध किया गया है। इस प्रकार उन्नीसवें उहे शक में केवल दो ही विषयों की चर्चा है। बीसवां उद्देशक बीसवें उद्देशक में 51 सूत्र हैं। जिन पर 6272-6703 गाथाओं में भाष्य है। कपटयुक्त और निष्कपट आलोचना के लिए विविध प्रकार के प्रायश्चित्तों का विधान है। जो साधक निष्कपट आलोचना करता है उस साधक को जितना प्रायश्चित्त पाता है उससे कपटयुक्त आलोचना करने वाले को एक मास अधिक प्रायश्चित्त आता है / भगवान् महावीर के शासन में उत्कृष्ट छःह मास के प्रायश्चित्त का ही विधान है। इन सूत्रों में प्रथम बीससूत्रव्यवहारसूत्र से मिलते-जुलते हैं। इसमें विविध भंग बताकर प्रायश्चित्त का निरूपण किया है / प्रायश्चित्त स्थानों की आलोचना प्रायश्चित्त देने पर और उसके बहन काल में सानुग्रह निरनुग्रह स्थापित और प्रस्थापित का स्पष्ट निरूपण किया गया है। यह स्मरण रखना होगा कि निशीथ नियुक्ति और भाष्य के अनुसार निशीथ की सूत्र संख्या 2022 है / पर प्रस्तुत संस्करण में सम्पूर्ण सूत्र संख्या 1401 है। निशीथसूत्र की जितनी भी प्रतियां उपलब्ध होती हैं उनमें सूत्र संख्या एक सदृश नहीं है। 621 सूत्रों का नियुक्ति और भाष्य की प्रति में जो अन्तर है, वह शोधार्थियों के लिए अन्वेषणीय है। अपराध व प्रायश्चित्त विधान--बौद्ध दृष्टि से श्रमणसंस्कृति की दो धाराएँ हैं—एक जैनसंस्कृति और दूसरी बौद्धसंस्कृति / हम उपयुक्त पंक्तियों में यह बता चुके हैं कि जैन साधनापद्धति में स्खलनाएं होने पर उस स्खलना से मुक्त होने के लिए निशीथ आदि छेदस्त्रों में प्रायश्चित आदि का निरूपण है। सर्वप्रथम जिन स्खलनाओं की सम्भावना है उनकी एक लम्बी सूची दी गई है और फिर उन स्खलनामों की शुद्धि हेतु प्रायश्चित्त का विधान किया गया है। जैन परम्परा में जो स्थान निशीथ का है वैसा ही स्थान बौद्धपरम्परा में विनयपिटक का है। विनयपिटक में बौद्ध भिक्षुसंघ का संविधान दिया गया है। भिक्षु जीवन में आचार का गौरवपूर्ण स्थान है। तथागत बुद्ध ने समय-समय पर भिक्षु और भिक्षुणियों के पालन योग्य नियमों का उपदेश दिया। प्रस्तुत सन्दर्भ में अपराधों, दोषों और प्रायश्चित्तों का भी वर्णन है। समाज और जीवन का दिग्दर्शन करने हेतु प्रस्तुत ग्रन्थ का अपना महत्व है। विनय पिटक में विनयवस्तु की दृष्टि से वह तीन विभागों में विभक्त है--(१) सुत्तविभंग, (2) खन्धक, (3) परिवार। ( 55 ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003492
Book TitleAgam 24 Chhed 01 Nishith Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages567
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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