________________ किसी अन्य को अतिरिक्त पात्र देना। अविकलांग या समर्थ को अतिरिक्त पात्र देना / विकलांग व असमर्थ को अतिरिक्त पात्र न देना। उपयोग में प्राने योग्य पात्र को न रखना और उपयोग में न आने योग्य पात्र को रखना। नवीन सुरभिगन्ध या दुरभिगन्ध युक्त पात्र को विशेष चित्ताकर्षक बनाने का, गृहस्थ से पात्र ग्रहण करते समय उस पात्र में से त्रस जीव, बीज, कन्दमूल, पुष्प, पत्र आदि निकालकर लेने का, परिषद् से निकलकर पात्र की याचना करने का तथा पाव के लिए मासकल्प और चातुर्मास रहने का निषेध है, इत्यादि प्रवृत्तियां करने पर लघुचौमासी प्रायश्चित्त का विधान है। प्रस्तुत उद्देशक में विस्तार के साथ पात्र के सम्बन्ध में विविध दृष्टियों से चिन्तन किया गया है / आचाराअस्त्र के द्वितीय धुतस्कन्ध में श्रमणों को क्रीत, प्रामृत्य, आच्छेद्य, अनिशृष्ट और अभिहत पात्र लेने का निषेध किया गया है और यह भी सचन किया गया है जो पात्र उपयोग में आवे उसे श्रमण ग्रहण करे और पात्रों को रंग-बिरंगे नहीं बनावे तथा ऐसे स्थान पर भी पात्रों को नहीं सुखाना चाहिए जहाँ पर पात्र गिरने की सम्भावना हो। पन्द्रहवां उद्देशक पन्द्रहवें उद्देशक में 154 सूत्र हैं। जिन पर 4690-5094 का विस्तृत भाष्य है। प्रथम चार सूत्रों में सामान्य श्रमणों की प्रासातना करने का और पाठ सूत्रों में सचित्त आम्र, आम्रपेशी, आम्रचोयक आदि खाने का लघुचातुर्मासिक प्रायश्चित्त बताया है। उसके पश्चात् गृहस्थ से परिकर्म करवाने का, अकल्पनीय स्थानों में मल-मूत्र परठने का और पार्श्वस्थ प्रादि को आहार, वस्त्र प्रादि देने और उनसे लेने का निषेध किया गया है। विभूषा की दृष्टि से शरीर का परिकर्म करना, वस्त्र आदि का परिमार्जन प्रक्षालन करना निषिद्ध है। ये प्रवृत्तियाँ करने पर लघुचौमासी प्रायश्चित्त बतलाया गया है। प्रस्तुत उद्देशक में जिन-जिन बातों की चर्चा है उसकी चर्चा आचाराङ्ग द्वितीय श्रुतस्कन्ध में भी आई है। वहां पर भी सचित्त आम आदि फलों को खाने का निषेध किया गया है। गहस्थ से शरीर परिकर्म करवाने का निषेध किया गया है और अकल्पनीय स्थानों पर मल-मूत्र विसर्जन का भी निषेध किया गया है। उत्तराध्ययन व दशवकालिक में विभूषा की दृष्टि से प्रवृत्ति करने का निषेध किया गया है। विभूषावृति को तालपुटविष से उपमित किया गया है। सोलहवां उद्देशक सोलहवें उद्देशक में 50 सूत्र हैं। जिन पर 5095-5903 गाथाओं का विस्तृत भाष्य है। भिक्ष को सामारिक आदि की शैय्या में प्रवेश करने का, सचित्त ईख, गण्डेरी आदि खाना या चूसने का, अरण्य में रहने वाले, वन में जाने वाले, अटवी की यात्रा करने वालों का प्रशन-पान लेने, असंयमी को संयमी, संयमी को असंयमी कहने का तथा कलह करने वाले तीथिकों से प्रशन-पान आदि ग्रहण करने का निषेध किया गया है। भाष्यकार ने सप्तनिह्नवों का वर्णन किया है। क्रोध में प्राकर जो अपने ही दांतों से दूसरों को काट लेते हों ऐसे दस्यु, अनार्य, म्लेच्छ और प्रत्यन्त देशवासियों के जनपदों में विहार करने का निषेध किया है। ये देश अनार्य देश थे। मगध, कोशाम्बी, थणा, कुणाला आदि पच्चीस देशों को आर्य देश माना गया है। जुगुप्सित कुलों से अशन, पान, वस्त्र, कम्बल आदि ग्रहण करने का और वहाँ पर स्वाध्याय आदि करने का भी निषेध है। अन्यतीथिक या गहस्थों के साथ भोजन ग्रहण करने का निषेध है। आचार्य, उपाध्याय आदि के प्रासन पर पैर लग जाने पर विनय ( 53 ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org