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________________ पनाहा उद्देशक] . इन 154 सूत्रों में कहे गये स्थानों को सेवन करने वाले को लघुचौमासी प्रायश्चित्त प्राता है। विवेचन-भिक्षु वस्त्र, पात्र आदि उपकरण, संयमनिर्वाह के लिये रखता है और उपयोग में लेता है / दशवकालिकसूत्र अ. 6 गा. 20 में कहा है जंपि वत्थं व पायं वा, कंबलं पायपुछणं / तं पि संजम-लज्जट्ठा, धारंति परिहरंति य // प्रश्नव्याकरणसूत्र श्रु. 2 अ. 1 तथा 5 में कहा है एवं पि संजमस्स उववहगट्टयाए वायातवदंसमसग सीय परिरक्खणट्टयाए उवगरणं रागदोसरहियं परिहरियव्वं संजएणं / ___ भावार्थ-संयम निर्वाह के लिए, लज्जा निवारण के लिये, गर्मी, सर्दी, हवा, डांस, मच्छर आदि से शरीर के संरक्षण के लिए भिक्षु वस्त्रादि धारण करे या उपयोग में ले। इस प्रकार उपकरणों को रखने का प्रयोजन आगमों में स्पष्ट है / किन्तु भिक्षु यदि विभूषा के लिये, शरीर आदि की शोभा के लिये अर्थात् अपने को सुन्दर दिखाने के लिये अथवा निष्प्रयोजन किसी उपकरण को धारण करता है तो उसे १५३वे सूत्र के अनुसार प्रायश्चित्त आता है। १५४वें सूत्र में विभूषावृत्ति से अर्थात् सुन्दर दिखने के लिये यदि भिक्षु वस्त्रादि उपकरणों को धोवे या सुसज्जित करे तो उसका प्रायश्चित्त कहा है। इन दोनों सूत्रों से यह भी स्पष्ट है कि भिक्षु बिना विभूषा वृत्ति के किसी प्रयोजन से वस्त्रादि उपकरण रखे या उन्हें धोवे तो सूत्रोक्त प्रायश्चित्त नहीं आता है अर्थात् भिक्षु संयम के अावश्यक उपकरण रख सकता है और उन्हें आवश्यकतानुसार धो भी सकता है, किन्तु धोने में विभूषा के भाव नहीं होने चाहिये। यदि पूर्ण रूप से भिक्षु को वस्त्र आदि धोना अकल्पनीय ही होता तो उसका प्रायश्चित्त कथन अलग प्रकार से होता किन्तु सूत्र में विभूषावृत्ति से ही धोने का ही प्रायश्चित्त कहा है / शरीर परिकर्म संबंधी 54 सूत्र अनेक उद्देश्यकों में आये हैं किन्तु यहाँ विभूषावृत्ति के प्रकरण में 56 सूत्र कहे गये हैं / अतः इसी सूत्र से भिक्षु का वस्त्रप्रक्षालन विहित है। विशिष्ट अभिग्रह प्रतिमा धारण करने वालों की अपेक्षा प्राचा. श्रु. 1 अ. 8 उ. 4-5-6 में वस्त्रप्रक्षालन का निषेध है। ऐसा वहां के वर्णन से भी स्पष्ट हो जाता है। इस उद्देशक में विभूषा के संकल्प से शरीर-परिकर्मों का और उपकरण रखने तथा धोने का प्रायश्चित्त कहा गया है / अन्य आगमों में भी भिक्षु के लिए विभूषावृत्ति का विभिन्न प्रकार से निषेध किया गया है 1. दश. अ. 3 गा. 9 में विभूषा करने को अनाचार कहा है / 2. दश. अ. 6 गा. 65 से 67 तक में कहा है कि-'नग्नभाव एवं मुडभाव स्वीकार करने वाले, बाल एवं नख का संस्कार न करने वाले तथा मैथुन से बिरत भिक्षु को विभूषा से प्रयोजन ही क्या है ? अर्थात् ऐसे भिक्षु को विभूषा करने का कोई प्रयोजन ही नहीं है / फिर भी जो भिक्षु विभूषा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003492
Book TitleAgam 24 Chhed 01 Nishith Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages567
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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