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________________ पन्द्रहवां उद्देशक] [337 गवेषणा किये बिना वस्त्र ग्रहण करने का प्रायश्चित्त 98. जे भिक्खू जायणा-वत्थं वा, गिमंतणा-वत्यं वा अजाणिय, अपुच्छिय, अगवेसिय पडिग्गाहेइ, पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ। से य वत्थे चउण्हं, अण्णयरे सिया, तंजहा१. णिच्च-णियंसणिए, 2. मज्जणिए, 3. छण्णूसविए, 4. रायदुवारिए। 98. जो भिक्षु याचित-वस्त्र तथा निमंत्रित-वस्त्र को जाने बिना, पूछे बिना, गवेषणा किए बिना लेता है या लेने वाले का अनुमोदन करता है। वह वस्त्र चार प्रकार के वस्त्रों में से किसी भी प्रकार का हो सकता है, यथा१. नित्य काम में आने वाला वस्त्र, 2. स्नान के समय पहना जाने वाला वस्त्र, 3. उत्सव में जाने के समय पहनने योग्य वस्त्र, 4. राजसभा में जाते समय पहनने योग्य वस्त्र / (उसे लघुचौमासी प्रायश्चित्त आता है / ) विवेचन-सूत्र में वस्त्र की प्राप्ति दो प्रकार से कही गई है 1. भिक्षु के द्वारा याचना किये जाने पर कि "हे गृहपत्ति ! आपके पास हमारे लिए कल्पनीय कोई वस्त्र है ?" 2. भिक्षु के पूछे बिना ही गृहस्थ स्वतः निमंत्रण करे कि "हे मुनि ! आपको कोई वस्त्र की आवश्यकता हो तो मेरे पास अमुक वस्त्र है, कृपया लीजिए।" इस प्रकार के 'याचना-वस्त्र =याचना से प्राप्त' और “निमंत्रण-बस्त्र= निमंत्रण पूर्वक प्राप्त" वस्त्र कहे गये हैं। वस्त्र गृहस्थ के किन-किन उपयोग में आने वाले होते हैं, इसका इस सूत्र में चार प्रकारों में कथन किया गया है। इन चार प्रकारों में गृहस्थ के सभी वस्त्रों का समावेश हो जाता है / 1. नित्य उपयोग में आने वाले-बिछाने, पहनने, अोढने आदि किसी भी काम में आने वाले वस्त्रों का इसमें समावेश किया गया है। उसमें से जो भिक्षु के लिए कल्पनीय और उपयोगी हों उन्हें वह ग्रहण कर सकता है। 2. स्नान के समय-इसका समावेश प्रथम प्रकार में हो सकता है, फिर भी कुछ समय के लिये ही वे बस्त्र काम में लेकर रख दिये जाते हैं, दिन भर नहीं पहने जाते / अथवा स्नान भी कोई सदा न करके कभी-कभी कर सकता है, अतः इन्हें अलग सूचित किया है / इसके साथ चूर्णिकार ने मंदिर जाते समय पहने जाने वाले वस्त्र भी ग्रहण किये हैं / वे भी अल्प समय पहन कर रख दिये जाते हैं / अतः इस विकल्प में अन्य भी अल्प समय में उपयोग में आने वाले वस्त्रों को समझ लेना चाहिये। 3. महोत्सव-त्यौहार, उत्सव, मेले, विवाह आदि विशेष प्रसंगों पर उपयोग में लिये जाने वाले वस्त्रों को तीसरे भेद में कहा है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003492
Book TitleAgam 24 Chhed 01 Nishith Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages567
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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