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________________ है ओर कारण से प्रतिसेवना 'कल्प' है / हम पूर्व में बता चुके हैं कि ज्ञान, दर्शन, चारित्र की साधना व आराधना करता हुआ साधक मोक्षमार्ग की ओर बढ़ता है। चारित्र का पालन ज्ञान और दर्शन की वृद्धि के लिए है। जिस चारित्र की आराधना से ज्ञान-दर्शन की हानि होती हो, वह चारित्र नहीं। चारित्र वही है जो ज्ञान-दर्शन को पुष्ट करता हो। ज्ञान-दर्शन के कारण चारित्र में अपवाद सेवन करने के लिए बाध्य होना पड़ता है। वे सभी अपवाद काल्पप्रतिसेवना में इसलिए लिए जाते हैं कि वे साधक को साधना से च्युत नहीं करते। जो भी अपवाद सेवन किया जाय उसमें ज्ञान और दर्शन ये दो मुख्य लक्ष्य होने चाहिए। यदि उन दोनों में से कोई भी कारण नहीं है तो वह प्रतिसेवनादर्प है। साधक का कर्तव्य है कि दर्प का परित्याग कर कल्प को ग्रहण करे। क्योंकि दर्प साधक के लिए निषिद्ध माना गया है।' एक जिज्ञासा हो सकती है-निशीथ भाष्य' व चणि आदि में भिक्ष आदि की स्थिति में भी अपवाद सेवन किये जाते रहे हैं, ऐसा उल्लेख है। फिर ज्ञान और दर्शन से ही अपवाद सेवन की बात कैसे कही गयी? समाधान है-ज्ञान और दर्शन ये दो मुख्य कारण हैं ही। दुभिक्ष आदि में साक्षात् ज्ञान और दर्शन की हानि नहीं होती, किन्तु परम्परा से ज्ञान और दर्शन की हानि होने से उन्हें लिया गया है। दुर्भिक्ष में आहार की प्राप्ति नहीं हो सकती और बिना आहार स्वाध्याय आदि नहीं हो सकता। इसलिए उसे अपवाद के कारणों में गिना है। निशीथभाष्य में दर्पप्रतिसेवना और कल्पप्रतिसेवना को प्रमाद-प्रतिसेवना और अप्रमाद-प्रतिसेवना भी बताया गया है / क्योंकि प्रमाद दर्प है और अप्रमाद कल्प है। जिस प्राचरण में प्रमाद है वह दपंप्रतिसेवना है और अप्रमाद है वह कल्पप्रतिसेवना है। अहिंसा को दृष्टि से उत्सर्ग व अपवाद जैन आचार की मूल भिति अहिंसा पर आधृत है। अन्य चारों महाव्रत अहिंसा के विस्तार हैं। जिस कार्य में प्रमाद है, वह हिंसा है। संयमी साधक के जीवन में अप्रमाद का प्राधान्य होता है। अप्रमाद-प्रतिसेवना के भी दो भेद किये गये हैं--अनाभोग और सहसाकार।४ अप्रमादी होने पर भी ईर्या आदि समिति की विस्मृति हो जाय, किसी कारण से स्वल्प काल के लिए उपयोग न रहे तो वह अनाभोग है। उसमें प्राणातिपात नहीं है, पर विस्मृति है / प्रवृत्ति हो जाने के पश्चात् यह ज्ञात हो कि हिंसा की सम्भावना है तो वह प्रतिसेवना सहसाकार है। जैसे संयमी साधक विवेकपूर्वक गमन कर रहा है। पहले जीव दिखाई न दिया हो पर ज्यों ही कदम उठाया कि जीव पर दृष्टि पड़ी। बचाने का प्रयत्न करने पर भी सहसा जीव के ऊपर पैर पड़ गया और वह प्राणी मर गया तो यह 'सहसा-प्रतिसेवना' है। अप्रमाद होने के कारण वह कर्मबन्धन नहीं है। अहिंसा का आराधन करना श्रमण का उत्सर्ग मार्ग है। वह मन, वचन, काया से किसी भी प्रकार की जीव-हिंसा नहीं करता। आचारांग, दशवकालिक तथा अन्य आगम साहित्य में अहिंसा महाव्रत का सूक्ष्म विश्लेषण है। श्रमण किसी भी सचित्त वस्तु का स्पर्श नहीं कर सकता / पर आचारांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध में यह स्पष्ट बताया है। एक श्रमण अन्य रास्ते के अभाव में किसी 1. निशीथभाष्य गा० 88 उसकी चूणि तथा गा० 144, 363, 463 / निशीथभाष्य गा० 175, 162, 188, 220, 221, 244, 253, 321, 342, 354, 391, 419, 425, 453, 458, 481484, 485, प्रादि / निशीथभाष्य गा० 91 / निशीथभाष्य मा०९०-९५ 2. ( 39 ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003492
Book TitleAgam 24 Chhed 01 Nishith Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages567
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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