________________ ऊँचे-नीचे, टेढ़े-मेढ़े, ऊबड़-खाबड़ मार्ग या जहाँ पर सेना के पड़ाव पड़े हों, रथ और गाड़ियां पड़ी हों, धान्य के ढेर पड़े हों, प्रथम तो ऐसे विषम और संकटापन्न मार्ग से श्रमण को नहीं जाना चाहिए। यदि अनिवार्य कारणवश ऊँचे-नीचे मार्ग से आवश्यक ही हो तो बनस्पति अथवा किसी पथिक के हाथ का सहारा ले सकता है। __ उत्सर्ग मार्ग में श्रमण हरित वनस्पति को स्पर्श नहीं कर सकता, पर जो यहां पर अपवाद में हरित वनस्पति आदि पकड़ने का विधान है, वह विधान वनस्पतिकाय के जीवों को विराधना करने के लिए नहीं है, अपितु अहिंसा के लिए ही यह विधान है। यदि श्रमण गिर जाता है तो उसका अंग भंग भी हो सकता है और मन में संकल्प-विकल्प भी हो सकता है। साथ ही गिरने से दूसरे जीवों की विराधना भी हो सकती है। अतः स्व और पर दोनों प्रकार की हिंसा को लक्ष्य में रखकर ही अहिंसा में अपवाद का उल्लेख किया गया है।' इसी तरह सचित्त पानी को श्रमण स्पर्श नहीं कर सकता पर उमड़-घुमड़कर घटायें आ रही हों और जोर से वर्षा हो रही हो, उस समय उच्चार-प्रस्रवण के लिए वह बाहर जा सकता है। बलात् मल-मूत्र का निरोध करना निषिद्ध है। क्योंकि मल-मूत्र के निरोध से शरीर में आकूलता-व्याकुलता पैदा हो सकती है, रोग भी उत्पन्न हो सकते हैं, जो स्वास्थ्य और शरीर तथा संयम के लिए हानिप्रद है / सत्य व अन्य महावतों की दृष्टि से उत्सर्ग-अपवाद / अहिंसा महाव्रत की भांति ही सत्य भी श्रमण का जीवनव्रत है। आचारांग में यह भी विधान है कि एक श्रमण विहार करके जा रहा है, सामने से व्याध प्रादि आ जाय और वह श्रमण से पूछे क्या तुमने इधर किसी पशु आदि को जाते देखा है ? श्रमण ऐसे प्रसंग में मौन रहे / यदि मौन रहने की स्थिति न हो तो जानता हुआ भी नहीं जानता हूँ, इस प्रकार कहे / यह सत्य का अपवाद मागें है / सूत्रकृतांगसूत्र की वृत्ति में आचार्य शीलांक ने स्पष्ट लिखा है कि जिसमें पर-वंचना की बुद्धि नहीं है, केवल संयम-गुप्ति के लिए कल्याण भावना से बोला गया असत्य दोष रूप नहीं है किन्तु जो मृषाबाद कपटपूर्वक दूसरों को ठगने के लिए बोला जाता है वह दोष रूप है। अतः हेय है। सत्य की तरह अस्तेय महाव्रत की साधना में बिना दी हुई वस्तु को श्रमण ग्रहण नहीं करता। पर इस प्रकार की परिस्थिति उत्पन्न हो कि श्रमण किसी ऐसे स्थान पर पहुंचा है जहाँ पर स्थान की सुविधा नहीं है, भयंकर शीत और वर्षा है, ऐसी स्थिति में श्रमण पहले बिना आज्ञा ग्रहण किये ठहर जाय। उसके पश्चात् आज्ञा प्राप्त कारने का प्रयास करें। इसी तरह श्रमण ब्रह्मचर्य महाव्रत की रक्षा के लिए नवजात कन्या को भी स्पर्श नहीं कर सकता पर वही श्रमण नदी में डूब रही भिक्षुणी को पकड़कर निकाल सकता है। 1. प्राचारांग 2 श्रुत० ईर्याध्ययन उ० 2 / योगशास्त्र स्वोपज्ञवृत्ति, तीसरा प्रकाश, 87 वां श्लोक। (क) आचारांग 2-1-3-3-129 वत्ति भी देखें। (ख) निशीथ चूणि भाष्य, गाथा 322 सूत्रकृतांग वृत्ति 1-8-19 सादियं गो मुसं बूया, एसधम्मे बुसीमो। -सूत्रकृतांग 1-8-19 6. व्यवहारसूत्र 9-11 बृहत्कल्पसूत्र, उ. 6 सूत्र-७-१२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org