________________ यदि शरीर ही नहीं रहा तो वह संयम की आराधना किस प्रकार कर सकेगा? संयम की साधना के लिए शरीर का पालन आवश्यक है।' साधक का लक्ष्य न जीवित रहना है और न मरना है। न वह जीवित रहने की इच्छा करता है और न भरने की इच्छा करता है। वह जीवित इसलिए रहना चाहता है कि ज्ञान, दर्शन, चारित्र की वृद्धि हो सके / जिस कार्य से ज्ञान, दर्शन, चारित्र की सिद्धि और वृद्धि हो, संयम-साधना में निर्मलता आये, उस कार्य को वह करना पसन्द करता है। जब देखता है कि शरीर ज्ञान-दर्शन-चारित्र की वृद्धि में बाधक बन रहा है तो वह सस्नेह मरण को स्वीकार कर लेता है। स्वस्थान और परस्थान एक शिष्य ने जिज्ञासा प्रस्तुत की-भगवन् ! बताइए, साधक के लिए उत्सर्ग स्वस्थान है या अपवाद ? समाधान प्रदान किया गया कि जिस साधक का शरीर पूर्ण स्वस्थ है और समर्थ है उसके लिए उत्सर्ग मार्ग ही स्वस्थान है और अपवाद परस्थान है। पर जिसका शरीर रुग्ण है, असमर्थ है, उसके लिए अपवाद स्वस्थान है और उत्सर्ग परस्थान है। साधक में जहाँ संयम का जोश होता है वहाँ उसमें विवेक का होश भी होता है / अपवाद मार्ग का निरूपण सिर्फ स्थविरकल्प की दष्टि से किया गया है। जिनकल्पी श्रमण तो केवल उत्सर्ग मार्ग पर ही चलते हैं। अपवाद यानी रहस्य निशीथणि में उत्सर्ग के लिए 'प्रतिषेध' शब्द का प्रयोग हआ है और अपवाद के लिए अनुज्ञा'। उत्सर्ग प्रतिषेध है और अपवाद विधि है। संयमी श्रमण के लिए जितने भी निषिद्ध कार्य बताये गये हैं, वे प्रतिषेध के अन्तर्गत आ जाते हैं और परिस्थिति-विशेष में जब उन निषिद्ध कार्यों के करने की अनुज्ञा दी जाती है तब वे निषिद्ध कार्य बिधि बन जाते हैं। परिस्थिति विशेष से अकर्तव्य भी कभी कर्तव्य बन जाता है। साधारण साधक' प्रतिषेध को विधि में परिणत करने की शक्ति नहीं रखता। वह औचित्य-अनौचित्य का परीक्षण भी नहीं कर सकता। इसीलिए अपवाद, अनुज्ञा या विधि प्रत्येक साधक को नहीं बताई जाती। एतदर्थ ही निशीथचणि में अपवाद का पर्यायवाची रहस्य भी है। __ जैसे प्रतिषेध (उत्सर्ग) का पालन करने से आचार विशुद्ध रहता है, उसी तरह अपवाद मार्ग का अवलम्बन करने पर भी आचरण विशुद्ध ही मानना चाहिए। अपवाद क्यों और किसलिए? अपवाद मार्ग ग्रहण करने के पूर्व अनेक शत रखी गई हैं। उन शर्तों की ओर लक्ष्य न दिया गया तो अपवाद मार्ग पतन का कारण बन जाएगा। एतदर्थ ही प्रतिसेवना के दो भेद हैं-अकारण अपवाद का सेवन 'दर्पप्रतिसेवना' -ओधनियुक्ति 47 -बृहत्कल्पभाष्य पीठिका 324 1. संजमहेउं देहो धारिज्जइ सो कओ उतदभावे / संजम फाइनिमित्तं, देह परिपालना इट्ठा / / 2. संथरओ सट्ठाणं उस्सग्गो अस हुणो परट्ठाणं / इय सट्ठाण परं वा, न होइ वत्थु-विणा किंचि // निशीथभाष्य गा०८७ निशीथभाष्य मा०६६९८ उत्थानचूर्णि निशीथभाष्य मा० 5245 6. निशीथणि गा० 495 7. निशीथचूणि गा० 287, 1022, 1068, 4103 ( 38 ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org