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________________ बारहवां उद्देशक] [275 13. आचा. श्रु. 2 अ. 15 में पाँचवें महाव्रत को पाँच भावनामों में शब्दादि विषयों के त्याग का तथा उन पर राग-द्वेष न करने का कथन है तथा प्रश्नव्याकरणसूत्र के पांचवें संवरद्वार में भी विषयों को आसक्ति के त्याग का विस्तृत कथन है। 14. ज्ञातासूत्र अ. 4 में कछुए के दृष्टांत से इन्द्रियनिग्रह करने का कथन है और अ. सत्रहवें में 'अश्व" के दृष्टांत द्वारा इन्द्रिय-विषयों में आसक्त होने का दुष्परिणाम और पानासक्त रहने का सुपरिणाम कहा है। 15. उत्तरा. अ. 29 में पाँचों इन्द्रियों के निग्रह करने के फल का कथन है। 16. उत्तरा. अ. 32 की 65 गाथाओं में शब्दादि विषयों का स्वरूप, आसक्ति, उससे होने वाली जीवों की प्रवृत्तियाँ और उनका परिणाम बताकर उससे विरक्त होने का परिणाम भी कहा गया है। एक-एक इन्द्रियविषय की आसक्ति से मरने वाले प्राणियों के दृष्टांत भी दिये गये हैं। 17. उत्तरा. अ. 16 में ब्रह्मचर्य की दसवीं समाधि में पांचों इन्द्रियविषयों का और चौथी पांचवीं समाधि में रूप व शब्द का वर्जन करने का उपदेश है तथा अन्य समाधियों में भी इन्द्रियविषय के त्याग का कथन है। 18. भगवतीसूत्र श. 12, उ. 2 में कहा है कि एक-एक इन्द्रिय के वश में होकर जीव कर्मों की प्रकृति, स्थिति, रस एवं प्रदेशों की वृद्धि करता है, असातावेदनीय का बारम्बार बंध करता है और चार गति रूप संसार में परिभ्रमण करता है। 19. धर्म पर श्रद्धा करने वाले प्राणी भी इन्द्रियों के विषयों में मूच्छित हो कर संयम का पालन नहीं कर सकते हैं। -उत्तरा. अ. 10. मा. 20. 20. अात्मनिग्रह न करने वाले और रस आदि इन्द्रियविषयों में गृद्ध मुनि कर्मबन्धनों का मूल से छेदन नहीं कर सकते / / -~~-उत्तरा. अ. 20 गा. 39 21. उत्तरा. अ. 23 गा. 38 में वश में नहीं की गई इन्द्रियों को प्रात्माशत्रुओं में गिना गया है। 22. मार्ग में चलता हुआ मुनि इन्द्रियविषयों का परित्याग करता हुअा गमन करे / -उत्तरा. अ. 24 गा. 8 23. इन्द्रियों के विषयों में यतना (विवेक) करने वाला संसार में भ्रमण नहीं करता है। -उत्तरा. अ. 31 गा. 7 24. अजितेन्द्रिय होना कृष्णलेश्या का लक्षण है तथा जितेन्द्रिय होना पद्मलेश्या का लक्षण है। --उत्तरा. अ. 34 गा. 22 25. कामगुणों के कटु विपाक को जानने वाला पण्डित मुनि मनोज्ञ शब्दादि विषयों को स्वीकार नहीं करता है। 26. ज्ञातासूत्र अध्य. 2 में शरीर के प्रति अनासक्तभाव से पाहार करने का एवं अध्य. 18 में खाद्य पदार्थों के प्रति अनासक्तभाव रखने का एक-एक दृष्टान्त द्वारा विस्तृत कथन किया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003492
Book TitleAgam 24 Chhed 01 Nishith Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages567
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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