________________ 276] [निशीपसूत्र अनेक स्थलों को देखने के लिए जाने वाला मुनि उनके प्रति राग-द्वेष करके कर्मबन्ध करता है, आरम्भजन्य कार्य की वचन से प्रशंसा करता है और यह अच्छा बनाया, ऐसा सोचकर सावध कर्मों का अनुमोदन भी करता है / अथवा कभी बनाने वाले को निन्दा या प्रशंसा भी करता है। सूत्रोक्त स्थानों पर रहे हुए जलचर, स्थलचर, खेचर आदि प्राणी भिक्षु को देखकर त्रास को प्राप्त होवें, इधर-उधर दौड़ें, खाते-पीते हों तो अंतराय दोष लगे इत्यादि कारण से भी असंयम और कर्मबन्ध होता है / अतः भिक्षु विषयेच्छा से निवृत्त होकर शुद्ध संयम की आराधना करे। उद्देशक 9 में राजा या रानी को देखने के लिए एक कदम भी जाने का गुरुचौमासी प्रायश्चित्त कहा है और इस बारहवें उद्देशक में विभिन्न स्थलों को देखने के लिए जाने का लघुचौमासी प्रायश्चित्त कहा है / भिक्षु को इन स्थलों के देखने का संकल्प भी नहीं करना चाहिए। यदि कदाचित् संकल्प हो भी जाय तो उसका निरोध करके स्वाध्याय ध्यान संयमयोग में लीन हो जाना चाहिए। आहार को कालमर्यादा के उल्लंघन का प्रायश्चित्त 32. जे भिक्खू पढमाए पोरिसीए असणं वा, पाणं वा, खाइमं वा, साइमं वा पडिग्गाहेत्ता पच्छिमं पोरिसिं उवाइणावेइ उवाइणावेतं वा साइज्जइ / 32. जो भिक्षु प्रथम प्रहर में अशन, पान, खाद्य या स्वाद्य ग्रहण करके उसे अंतिम चौथी प्रहर में रखता है या रखने वाले का अनुमोदन करता है / (उसे लघुचौमासी प्रायश्चित आता है।) विवेचन--उत्तराध्ययनसूत्र के छब्बीसवें अध्ययन में भिक्षु की दिनचर्या का वर्णन करते हुए गाथा 12 और 32 में तीसरे प्रहर में गोचरी जाने का विधान है। भगवतीसूत्र, अंतकृद्दशासूत्र, उपासकदशासूत्र आदि में अनेक स्थलों पर तीसरे प्रहर में गोचरी जाने वालों का वर्णन है। दशाश्रुतस्कंध दशा. 7 में प्रतिमाधारी भिक्षु के लिए दिन के तीन विभागों में से किसी भी एक विभाग में गोचरी करने का विधान है। वहां प्रथम, द्वितीय, तृतीय या चतुर्थ किसी भी प्रहर का विधान या निषेध नहीं है। बहत्कल्पसूत्र उद्देशक 5 में कहा है कि सूर्यास्त या सूर्योदय के निकट समय में प्राहार करते हुए भिक्षु को यह ज्ञात हो जाय कि सूर्योदय नहीं हुआ है या सूर्यास्त नहीं हुआ है या सूर्यास्त हो गया स समय यदि भिक्ष मुख में से, हाथ में से व पात्र में से आहार को परठ देता है तो भगवदाज्ञा का उल्लंघन नहीं करता है, किन्तु जानकारी होने के बाद पाहार करता है तो उसे प्रायश्चित्त प्राता है। बृहत्कल्प उद्देशक 4 में कहा है कि प्रथम प्रहर में ग्रहण किया आहार-पानी चतुर्थ प्रहर में रखना साधु, साध्वी को नहीं कल्पता है / यदि भूल से रह गया हो तो परठ देना चाहिये / निष्कर्ष यह है कि साधु, साध्वी साधारणतया तीसरे प्रहर में गोचरी के लिए जाए। विशेष आवश्यक स्थिति में वे दिन में किसी भी समय क्षेत्र की अनुकूलतानुसार गोचरी हेतु जा सकते हैं / किन्तु ग्रहण किये आहार को तीन प्रहर से ज्यादा रखना नहीं कल्पता है। यदि भूल से रह जाय तो खाना नहीं कल्पता है / चूणि में कहा है-- Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org