________________ 274] [निशीथसूत्र शब्द, रूप आदि इन्द्रियविषयों की प्रासक्ति का निषेध एवं उनसे उदासीन रहने के विभिन्न प्रागम वाक्य इस प्रकार हैं 1. जो प्रमादी गुणार्थी (इन्द्रियविषयों का इच्छुक) होता है, वही अपनी आत्मा को दण्डित करने वाला कहा जाता है। -आचा. श्रु. 1 अ. 1 उ. 4 2. जो इन्द्रियों के विषय हैं वे ही संसार के मूल कारण हैं / जो संसार के मूल कारण हैं वे इन्द्रियों के विषय ही हैं। इन इन्द्रियों के विषयों का इच्छुक महान् दुःखाभिभूत होकर उनके वशीभूत होता है और प्रमादाचरण करता है। -प्राचा. श्रु. 1 अ. 2 उ. 1. 3. जो शब्दादि विषय हैं वे संसार-आवर्त हैं, जो संसार-आवर्त के कारण हैं वे शब्दादि विषय ही हैं / लोक में ऊपर, नीचे, तिरछे एवं पूर्व प्रादि दिशाओं में जीव रूपों को देखकर और शब्दों को सुनकर उनमें मूच्छित होते हैं, यही संसार का कारण कहा गया है। जो इन विपयों से अगुप्त है, वह भगवदाज्ञा से बाहर है और पुनः शब्दादि विषयों का सेवन करता है। प्राचा. श्रु 1. अ.१ उ. 5 4. इन इन्द्रियविषयों पर विजय प्राप्त करना अति कठिन है....जो ये इन्द्रियविषयों के इच्छुक प्राणी हैं, वे उनके प्राप्त न होने पर या नष्ट हो जाने पर शोक करते हैं, झरते हैं, आंसू बहाते हैं, पीड़ित होते हैं और महा दुःखी हो जाते हैं / -पाचा.१ अ. 2 उ.५ 5. जिसने शब्द, रूप, गंध, रस, स्पर्शों की आसक्ति के परिणामों को सम्यक् प्रकार से जानकर उनका त्याग कर दिया है वह साधक आत्मार्थी है, ज्ञानी है, शास्त्रज्ञ है, धर्मी है और संयमवान् -आचा. श्रु. 1 अ. 2 उ. 1 6. शब्दों और रूपों के प्रति उपेक्षाभाव रखता हुआ मुनि जन्म-मरण से विमुख रहकर संयमाचरण द्वारा जन्म-मरण से छूट जाता है। __ -- प्रा. श्रु. 1, अ. 3, उ. 1 7. जीव इन्द्रियविषयों में गृद्ध होकर कर्मों का संचय करते हैं / -प्राचा. श्रु. 1 अ. 3 उ. 2 8. चक्षु आदि इन्द्रियों का निरोध करने वाले कोई मुनि पुनः मोहोदय से कर्मबंध के कारणभूत इन इन्द्रियविषयों में गृद्ध हो जाते हैं। वे बाल जीव कर्मबंधन से मुक्त नहीं होते, संयोगों का उल्लंघन नहीं कर पाते, मोह रूपी अंधकार में रहकर मोक्ष मार्ग को नहीं समझ पाते, वे भगवदाज्ञा की आराधना के लाभ को भी प्राप्त नहीं कर सकते। -आचा. श्रु. 1 अ. 4. उ. 4 9. अल्प सामर्थ्य वाले के लिए इन्द्रियविषयों का त्याग करना अत्यन्त कठिन है। --प्राचा. श्रु. 1 अ. 5. उ. 1 . 10. अनेक संसारी प्राणी रूप आदि में गद्ध होकर अनेक योनियों में परिभ्रमण कर रहे हैं / वे प्राणी वहां अनेक कष्टों को प्राप्त होते हैं। -प्राचा. श्रु. 1. अ. 5 उ. 1 11. बाल जीव रूपादि में आसक्त होकर या हिंसादि में आसक्त होकर धर्म से च्युत हो जाते हैं और संसार में भ्रमण करते हैं। -आचा. श्रु. 1 अ. 5. उ. 3 12. रूपादि में प्रासक्त जीव दु:खी होकर करुण विलाप करते हैं। फिर भी उन कर्मों के फल से वे मुक्त नहीं हो सकते। ---आचा. श्रु. 1 अ. 6 उ. 1. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org