SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 373
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बारहवां उद्देशक [273 ये दो शब्द मिलते हैं / आचारांग के चूर्णिकार ने एक शब्द की व्याख्या की ही है और निशीथचूणि में दो शब्द होने का निर्देश है / दोनों उद्धरण ऊपर दिये गये हैं। गंथिम, वेढिम आदि का निशीथ में पुष्पसम्बन्धी अर्थ किया है और प्राचारांग में वस्त्रादि से वेष्टन करना आदि अर्थ किया है। कई प्रतियों में "पत्तच्छेज्जकम्माणि" शब्द अधिक मिलता है किन्तु दोनों सूत्रों की चूणियों में यह शब्द नहीं है / आचारांग टीका में यह शब्द है। प्रतियों में इस सूत्र के अन्त में "विहिमाणि" शब्द भी है, परन्तु उसका निर्देश चूणि या टीका में नहीं है / आचारांग टीका में गंथिमादि चार शब्द पहले हैं और कट्ठकम्माणि आदि शब्द बाद में हैं। किन्तु दोनों चूर्णिकारों ने पहले कठ्ठकम्माणि आदि की व्याख्या करके उसके बाद गंथिम आदि की व्याख्या की है। यह सूत्र, कई प्रतियों में इन सूत्रों के प्रारंभ में या भिन्न-भिन्न स्थलों में मिलता है किन्तु निशीथचूर्णिकार ने जहां इसकी व्याख्या की है वहीं इस सूत्र को रखा है / आचारांग सूत्र में इस सूत्र की व्याख्या १२वें अध्ययन को टीका में है और शेष सभी सूत्रों की व्याख्या ग्यारहवें अध्ययन में है। किन्तु आचारांगण में और निशोथर्णि में सूत्रस्थल एवं शब्दस्थल में पूर्णतः समानता है। दोनों चूणियों में इसके बाद महामहोत्सवों का कथन किया गया है। महोत्सव, महामहोत्सव और महाश्रवस्थानों के तीन सूत्रों की व्याख्या भाष्य गाथाओं में उपलब्ध है / किन्तु निशीथ की प्रतियों में एक सूत्र का मूल पाठ ही मिलता है / चणि में तीनों सूत्रों के अस्तित्व का संकेत मिलता है। आचारांग में दो सूत्रों का मूल पाठ व टीका उपलब्ध है तथा आचारांगणि में निशीथचूर्णि के समान तीनों सूत्रों के अस्तित्व का संकेत मिलता है / अतः दो सूत्र आचारांग के अनुसार और एक महामहोत्सव का सूत्र निशीथ उद्देशक आठ के अनुसार रखा है / इन तीनों सूत्रों के शब्दार्थ की स्पष्टता के लिए पाठवां उद्देशक देखें / भाष्यकार ने गाथा. 4137, 4138 एवं 4139 में क्रमशः उत्सवों के लिए-'इत्थिमादि ठाणा', महामहोत्सवों के लिए---"समवायादि ठाणा" और महाश्रवस्थानों के लिये-"विरूवरूवादि ठाणा" शब्द का प्रयोग किया है। अंतिम सूत्र में सभी ज्ञात-अज्ञात और दृष्ट-अदृष्ट रूपों की आसक्ति का प्रायश्चित्त कहा है / इस सूत्र में प्रासक्ति के लिए चार शब्दों का प्रयोग है, जबकि प्राचारांग में पांच शब्द भी मिलते हैं / वहाँ "नो मुझेज्जा" शब्द अधिक है, जिसका अर्थ है मूच्छित न हो और उसके बाद "नो अज्झोववज्जेज्जा" अर्थात् अत्यंत मूच्छित न हो। __ आचारांगसूत्र द्वितीय श्रुतस्कंध में रूप की आसक्ति का वर्णन बारहवें अध्ययन में है और उसके पहले ग्यारहवें अध्ययन में शब्द की आसक्ति का वर्णन है / किन्तु निशीथसूत्र में पहले रूप की आसक्ति का बारहवें उद्देशक में प्रायश्चित्त कथन करके बाद में सतरहवें उद्देशक में शब्द की आसक्ति का प्रायश्चित्त कथन किया है / यह दोनों सूत्रों के वर्णन में उत्क्रम है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003492
Book TitleAgam 24 Chhed 01 Nishith Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages567
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy