________________ ग्यारहवां उद्देशक] [235 2. अनिश्राकृत–साधु गाँव में हो अथवा न हो, स्वाभाविक रूप से ही निश्चित दिन नैवेद्य पिंड बनाया हो और अचानक साधु वहाँ पहुँच गया हो तो वह अनिश्राकृत नैवेद्यपिंड है। तात्पर्य यह है कि साधु के लिए पाहडिया दोष, मिश्रजात दोष और ठवणादोष आदि उद्गम के दोष जिस नैवेद्य पिंड में हों उसकी अपेक्षा यह गुरुचौमासी प्रायश्चित्त कहा गया है और उस पिंड को निश्राकृत नैवेद्यपिंड कहा जाता हैं। जो अनिश्राकृत स्वाभाविक नैवेद्यपिंड है अर्थात् देवता को अर्पित करने के बाद दान के लिए रखा हुआ है वह अनिश्राकृत नैवेद्यपिंड अर्थात् दानपिंड होने से निशीथसूत्र के दूसरे उद्देशक में आये दानपिंड के प्रायश्चित्त सूत्रों में इसका समावेश होता है / वहाँ इसको लघुमासिक प्रायश्चित्त कहा गया है। इससे ज्ञात होता है कि आगमकाल में देवताओं को अधिक मात्रा में खाद्य पदार्थ अर्पित किया जाता था जो पूजा-विधि करके दान रूप में वितरित कर दिया जाता था। किसी श्रद्धाशील के द्वारा भिक्षु को किसी निमित्त से दान देने के लिये भी ऐसी प्रवृत्ति की जाती थी। अतः उसी अपेक्षा से इस सूत्र में निश्राकृत नैवेद्यपिंड का प्रायश्चित्त कहा गया है। यथाछंद को वंदन करने तथा उसकी प्रशंसा करने का प्रायश्चित्त 81. जे भिक्खू अहाछंदं पसंसइ, पसंसंतं वा साइज्जइ / 82. जे भिक्खू अहाछंदं वंदइ, बंदतं वा साइज्जइ / 81. जो भिक्षु स्वच्छंदाचारी की प्रशंसा करता है या करने वाले का अनुमोदन करता है। 82. जो भिक्षु स्वच्छंदाचारी को वंदन करता है या करने वाले का अनुमोदन करता है। (उसे गुरुचौमासी प्रायश्चित्त आता है। विवेचन-जो प्रागमविपरीत एवं स्वमतिकल्पित प्ररूपणा करता है, वह 'यथाछंद' कहा जाता ऐसे स्वच्छंदाचारी भिक्षु को प्रशंसा एवं वंदना करने से उसे प्रोत्साहन मिलता है तथा अन्य भी अनेक दोषों की उत्पत्ति की संभावना होने से प्रस्तुत सूत्र में इसका गुरुचातुर्मासिक प्रायश्चित्त कहा गया है तथा उपलक्षण से शिष्य या आहारादि का आदान-प्रदान करने पर भी यही प्रायश्चित्त समझ लेना चाहिये। पासत्था आदि 9 प्रकार के साधुओं को वंदना एवं उनकी प्रशंसा करने पर लघुचौमासी प्रायश्चित्त पाता है। -नि० उ० 13. उनके साथ अन्य सम्पर्क रखने का भी लघुचौमासी या लधुमासिक प्रायश्चित्त का कथन अन्य उद्देशकों में है। किन्तु यथाछंद उत्सूत्र प्ररूपक होने से इसके साथ सम्पर्क का यहाँ गुरु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त कहा गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org