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________________ 234] [निशीषसूत्र पहेणं"-अन्य के घर उपहार रूप में भेजा जाने वाला खाद्य पदार्थ आदि। 2. वर के घर से बहू के घर उपहार रूप में भेजा जाने वाला खाद्य पदार्थ आदि / 3. वर-वधू के सिवाय अन्य के द्वारा कहीं उपहार रूप में भेजा जाने वाला आहारादि / "हिंगोलं".--मृतकभोज-श्राद्धभोजन आदि / ___ "संमेलं"-१. विवाह सम्बन्धी भोजन / 2. गोष्ठीभोज-गोठ का भोजन / 3. किसी भी कार्य के प्रारम्भ में किया जाने वाला भोजन / भिक्षु इन प्रसंगों से आहार को इधर-उधर ले जाते देखे और जाने कि शय्यादाता के घर विशेष भोजन का आयोजन है। उस आहार को ग्रहण करने की आकांक्षा उत्पन्न होने से उस शय्यादाता का मकान छोड़कर अन्य किसी के मकान में (उस भोजन के पहले दिन को) रात्रि में रहने के लिये जाता है, इस विचार से कि इस मकान में रहते हुए शय्यातर का आहार ग्रहण नहीं किया जा सकता। ___ गृहपरिवर्तन करने में गृहस्वामी शय्यादाता का भी भक्तिवश आग्रह हो सकता है अथवा भिक्षु का स्वत: भी संकल्प हो सकता है। इन दोनों स्थितियों में उस भोजन को ग्रहण करने के संकल्प से जाने पर सूत्रोक्त प्रायश्चित्त आता है। ऐसा करने में आहार की प्रासक्ति, लोकनिन्दा या अन्य संखडी सम्बन्धी दोषों की संभावना रहती है। __ व्याख्याकार ने शय्यादाता के अलावा अन्य व्यक्ति के घर का भोजन हो तो भी गृहपरिवर्तन करने का प्रायश्चित्त इसी सूत्र से बताया है। यथा-जिस किसी भक्तिमान् व्यक्ति के घर में भोजन है और वह स्थान दूर है तो उसके निकट में जाकर रात्रि-निवास किया जा सकता है। इस प्रकार शय्यातर व अन्य भोजन को अपेक्षा स्थानपरिवर्तन का प्रायश्चित्त गुरुचौमासी समझना चाहिये। नैवेद्य का प्राहार करने पर प्रायश्चित्त___ ८०-जे भिक्खू णिवेयपिडं भुजइ, भुजंतं वा साइज्जइ / 80. जो भिक्षु नैवेद्य पिंड खाता है या खाने वाले का अनुमोदन करता है / (उसे गुरुचौमासी प्रायश्चित्त पाता है।) विवेचन----पूर्णभद्र माणिभद्र आदि जो अरिहंतपाक्षिक देवता हैं, उनके लिए अर्पित पिंड "नैवेद्यपिंड” कहलाता है / वह नैवेद्य पिंड दो प्रकार का होता है, यथा 1. भिक्षु की निश्राकृत 2. भिक्षु की अनिश्राकृत / 1. निश्राकृत-१. जो भिक्षु को देने की भावना से युक्त है / अर्थात् मिश्रजात दोष युक्त नैवेद्य पिंड बना है। 2. जो साधु को देने की भावना से नियत दिन के पहले या पीछे किया गया है। 3. नैवेद्यपिंड तैयार होने के बाद साधु के लिए स्थापित करके रख दिया है / ये सभी निश्राकृत नैवेद्य पिंड हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003492
Book TitleAgam 24 Chhed 01 Nishith Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages567
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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