________________ कूणिक द्वारा भगवान् का परोक्ष वन्दन] [21 जाणुधरणितलंसि साहटु तिक्खुत्तो मुद्धाणं धरणितलंसि निवेसेइ, निवेसित्ता ईसि पच्चुण्णमइ, पच्चुण्ण मित्ता कङगतुडियर्थभियानो भुयानो पडिसाहरइ, पडिसाहरित्ता करयल जाव (-परिग्गहियं सिरसावत्तं मस्थए अंजलि) कटु एवं बयासी। १९-भंभसार का पुत्र राजा कृणिक वार्तानिवेदक से यह सुनकर, उसे हृदयंगम कर हर्षित एवं परितुष्ट हुआ। उत्तम कमल के समान उसका मुख तथा तेत्र खिल उठे। हर्षातिरेकजनित संस्फूर्तिवश राजा के हाथों के उत्तम कड़े, बाहुरक्षिका-भुजाओं को सुस्थिर बनाये रखने वाली आभरणात्मक पट्टी, केयूर-भुजबन्ध, मुकुट, कुण्डल तथा वक्षःस्थल पर शोभित हार सहसा कम्पित हो उठे-हिल उठे। राजा के गले में लम्बी माला लटक रही थी, प्राभूषण झूल रहे थे। राजा आदरपूर्वक शीघ्र सिंहासन से उठा / (सिंहासन से) उठकर, पादपीठ (पैर रखने के पीढ़े) पर पैर रखकर नीचे उतरा। नीचे उतर कर पादुकाएँ उतारों। फिर खड्ग, छत्र, मुकुट, वाहन, चंवर-इन पांच राजचिह्नों को अलग किया। जल से आचमन किया, स्वच्छ तथा परम शुचिभूत अति स्वच्छ व शुद्ध हुना। कमल की फली की तरह हाथों को संपुटित किया हाथ जोड़े। जिस ओर तीर्थकर भगवान महावीर विराजित थे, उस अोर सात, आठ कदम सामने गया। वैसा कर अपने बायें घुटने को प्राकुचितसंकुचित किया-सिकोड़ा, दाहिने घुटने को भूमि पर टिकाया, तीन बार अपना मस्तक जमीन से लगाया। फिर वह कुछ ऊपर उठा, कंकण तथा बाहुरक्षिका से सुस्थिर भुजाओं को उठाया, हाथ जोड़े, अंजलि (जुड़े हुए हाथों) को मस्तक के चारों ओर घुमाकर बोला / कूणिक द्वारा भगवान् का परोक्ष वन्दन २०–णमोऽत्थु णं अरिहंताणं, भगवंताणं, आइगराणं, तित्थगराणं, सयंसंबुद्धाणं, पुरिसुत्तमाणं, पुरिससीहाणं, पुरिसवरपुंडरीयाणं पुरिसवरगंधहत्थीणं, लोगुत्तमाणं लोगनाहाणं, लोगहियाणं लोगपईवाणं, लोगपज्जोयगराणं, अभयदयाणं, चक्खुदयाणं, मग्गदयाणं, सरणदयाणं, जीवदयाणं, बोहिदयाणं धम्मदयाणं, धम्मदेसयाणं, धम्मनायगाणं, धम्मसारहीणं धम्मवरचाउरंतचक्कवट्टीणं, दीवी, ताणं, सरणं, गई, पइट्ठा, अप्पडिहयवरनाणदंसणधराणं, वियदृछउमाणं, जिणाणं, जावयाणं, तिण्णाणं, तारयाणं, बुद्धाणं, बोहयाणं, मुत्ताणं, मोयगाणं, सव्वष्णूणं, सव्वदरिसोणं, सिवमयलमख्यमगंतमक्खयमध्वाबाहमपुणरावत्तगं, सिद्धिगाणामधेज्जं ठाणं संपत्ताणं / नमोऽत्थु णं समणस्स भगवनो महावीरस्स, आदिगरस्स, तित्थगरस्स जाव' संपाविउकामस्स, मम धम्मायरियस्स धम्मोवदेसगस्स। बंदामि णं भगवंतं तत्थगयं इहगए, पासउ मे भगवं तत्थगए इहगयं ति कटटु वंदद णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता सीहासणवरगए, पुरस्थाभिमुहे निसीया, निसीइत्ता तस्स पवित्तिवाउयस्स अठ्ठत्तरं सयसहस्सं पीइदाणं दलयइ, दलइत्ता सक्कारेइ, सम्माणेइ, सक्कारित्ता, सम्माणित्ता एवं वयासी २०-अर्हत - इन्द्र आदि द्वारा पूजित अथवा कर्मशत्रुओं के नाशक, भगवान्--आध्यात्मिक ऐश्वर्य सम्पन्न, आदिकर अपने युग में धर्म के आद्य प्रवर्तक, तीर्थंकर–साधु-साध्वी-श्रावक-श्राविका 1. इस सूत्र में आये भगवान के सभी विशेषण षष्ठी एकवचनान्त होकर यहाँ लगेंगे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org