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________________ 20] [औषपातिकसूत्र १७--प्रवृत्ति-निवेदक को जब यह (भगवान् महावीर के पदार्पण की) बात मालूम हुई, वह हर्षित एवं परितुष्ट हुआ। उसने अपने मन में आनन्द तथा प्रीति-प्रसन्नता का अनुभव किया / सौम्य मनोभाव व हर्षातिरेक से उसका हृदय खिल उठा। उसने स्नान किया, नित्यनैमित्तिक कृत्य किये, कौतुक-देहसज्जा की दृष्टि से नेत्रों में अंजन प्रांजा, ललाट पर तिलक लगाया, प्रायश्चित्तदुःस्वप्नादि दोषनिवारण हेतु चन्दन, कुकुम, दही, अक्षत, आदि से मंगल-विधान किया, शुद्ध, प्रवेश्यराजसभा में प्रवेशोचित-उत्तम वस्त्र भलीभाँति पहने, थोड़े से संख्या में कम पर बहुमूल्य आभूषणों से शरीर को अलंकृत किया। यों (सजकर) वह अपने घर से निकला। (घर से) निकलकर वह चम्पा नगरी के बीच जहाँ राजा कूणिक का महल था, जहाँ बहिर्वर्ती राजसभा-भवन था, जहाँ भभसार का पुत्र राजा कोणक था, वहाँ आया। (वहाँ) आकर उसने हाथ जोड़ते हए, उन्हें सिर के चारों ओर घुमाते हुए, अंजलि बांधे "पापको जय हो, विजय हो' इन शब्दों में वर्धापित किया / तत्पश्चात् इस प्रकार बोला १८-जस्स णं देवाणपिया दंसणं कखंति, जस्स णं देवाणुप्पिया दंसणं पोहंति, जस्स गं देवाणुप्पिया दंसणं पत्थंति, जस्स णं देवाणुप्पिया सणं अभिलसंति, जस्स णं देवाणुप्पिया णामगोयरस वि सवणयाए हतुट्ठ जाव (चित्तमाणंदिया, पोइमणा, परम सोमणस्सिया) हरिसवसविसप्पमाहियया भवंति, से णं समणे भगवं महावीरे पुवाणुपुष्विं चरमाणे, गामाणुग्गामं दूइज्जमाणे चंपाए णयरीए उवणगरग्गामं उवागए, चंपं गरि पुण्णभई चेइयं समोसरिउकामे। तं एवं देवाणुप्पियाणं पियट्टयाए पियं णिवेदेमि, पियं ते भवउ / / १८-देवानुप्रिय (सौम्यचेता राजन्) ! जिनके दर्शन की आप कांक्षा करते हैं— प्राप्त होने पर छोड़ना नहीं चाहते, स्पृहा करते हैं दर्शन न हुए हों तो करने की इच्छा लिये रहते हैं, प्रार्थना करते हैं-दर्शन हों, सुहृज्जनों से वैसे उपाय जानने की अपेक्षा रखते हैं, अभिलाषा करते हैं जिनके दर्शन हेतु अभिमुख होने की कामना करते हैं, जिनके नाम (महावीर, ज्ञातपुत्र, सन्मति आदि) तथा गोत्र (कश्यप) के श्रवणमात्र से हर्षित एवं परितुष्ट होते हैं, मन में आनन्द तथा प्रसन्नता का अनुभव करते हैं, सौम्य मनोभाव व हर्षातिरेक से हृदय खिल उठता है, वे श्रमण भगवान् महावीर अनुक्रम से विहार करते हुए, एक गांव से दूसरे गांव होते हुए चम्पा नगरी के उपनगर में पधारे हैं। अब पूर्णभद्र चैत्य में पधारेंगे / देवानुप्रिय ! आपके प्रीत्यर्थ-प्रसन्नता हेतु यह प्रिय समाचार मैं आपको निवेदित कर रहा हूँ। यह आपके लिए प्रियकर हो / १९-तए णं से कूणिए राया भंभसारपुत्ते तस्स पवित्तिवाउयस्स अंतिए एयभट्ट सोच्चा णिसम्म हट्ठतुट्ट जाव' हियए, वियसियवरकमलणयणवयणे, पयलियवरकडग-तुडिय-केऊर-मउडकुंडल-हार-विरायंतरइयवच्छे, पालंबपलंबमाणघोलंतभूसणधरे ससंभमं तुरियं, चवलं नारदे सीहासणाओ अब्भुठेइ, अन्भुद्वित्ता पायपीढाओ पच्चोरुहइ, पच्चोरुहित्ता, पाउयाओ ओमुयइ, ओमुइत्ता अवहट्ट पंच रायक-कुहाई, तं जहा-१. खग्गं, 2. छत्तं, 3. उप्फेसं, 4. वाहणानो, 5. बालवीयणं, एगसाडियं उत्तरासंगं करेइ, करेत्ता प्रायंते, चोक्खे, परमसुइभूए, अंजलिमउलियहत्थे तित्थगराभिमुहे सत्तट्ठ, पयाई अणुगच्छइ, सत्तटुपयाइ अणुगच्छिता वामं जाणुअंचेइ, चामं जाणु अंचेत्ता वाहिणं 1. देखें सूत्र-संख्या 18 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003480
Book TitleAgam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1992
Total Pages242
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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