________________ 10] [औपपातिकसूत्र निकलते हुए रेशों जैसे कोमल विशद, प्रशस्त, सूक्ष्म, श्लक्ष्ण-मुलायम, सुरभित, सुन्दर, भुजमोचक, नीलम, भींग, नील, कज्जल, प्रहृष्ट--सुपुष्ट भ्रमरवृन्द जैसे चमकीले काले, घने, घुघराले, छल्लेदार केश उनके मस्तक पर थे, जिस त्वचा पर उनके बाल उगे हुए थे, वह अनार के फूल तथा सोने के समान दीप्तिमय, लाल, निर्मल और चिकनी थी, उनका उत्तमांग-मस्तक का ऊपरी भाग सघन, भरा हुअा और छत्राकार था, उनका ललाट निर्बण-फोड़े-फुन्सी आदि के घाव-चिह्न से रहित, समतल तथा सुन्दर एवं अर्द्ध चन्द्र के सदृश भव्य था, उनका मुख पूर्ण चन्द्र के समान सौम्य था, उनके कान मुख के साथ सुन्दर रूप में संयुक्त और प्रमाणोपेत-समुचित प्राकृति के थे, इसलिए वे बड़े सुहावने लगते थे, उनके कपोल मांसल और परिपुष्ट थे, उनकी भौंहें कुछ खींचे हुए धनुष के समान सुन्दर-टेढ़ी, काले बादल की रेखा के समान कृश-पतली, काली एवं स्निग्ध थीं, उनके नयन खिले हए पुंडरीक-सफेद कमल के समान थे, उनकी आँखें पद्म-कमल की तरह विकसित, धवल तथा पत्रल- बरौनी युक्त थीं, उनकी नासिका गरुड़ की तरह-गरुड़ की चोंच की तरह लम्बी, सीधी और उन्नत थी, संस्कारित या सुघटित मूगे की पट्टी-जैसे या बिम्ब फल के सदृश उनके होठ थे, उनके दांतों की श्रेणी निष्कलंक चन्द्रमा के टुकड़े, निर्मल से भी निर्मल शंख, गाय के दूध, फेन, कुद के फूल, जलकण और कमल-नाल के समान सफेद थी, दाँत अखंड, परिपूर्ण, अस्फुटित-सुदृढ़, टूट फूट रहित, अविरल-परस्पर सटे हुए, सुस्निग्ध-चिकने.... आभामय, सुजात—सुन्दराकार थे, अनेक दाँत एक दन्तश्रेणो की तरह प्रतीत होते थे, जिह्वा और तालु अग्नि में तपाये हुए और जल से धोये हए स्वर्ण के समान लाल थे, उनकी दाढी-मछ अवस्थित--कभी नहीं बढ़ने वाली, सुविभक्त बहुत हलकी-सी तथा अद्भुत सुन्दरता लिए हुए थी, ठुड्डी मांसल-सुपुष्ट, सुगठित, प्रशस्त तथा चीते की तरह विपुल-विस्तीर्ण थी, ग्रीवा-गर्दन चार अंगुल प्रमाण-चार अंगुल चौड़ी तथा उत्तम शंख के समान त्रिबलियुक्त एवं उन्नत थी, उनके कन्धे प्रबल भैंसे, सूअर, सिंह, चीते, सांड तथा उत्तम हाथी के कन्धों जैसे परिपूर्ण एवं विस्तीर्ण थे, उनकी भुजाएं युग-गाड़ी के जुए अथवा यूप-यज्ञ स्तम्भ---यज्ञ के खूटे की तरह गोल और लम्बी, सुदृढ़, देखने में आनन्दप्रद, सुपुष्ट कलाइयों से युक्त, सुश्लिष्ट-सुसंगत, विशिष्ट, घन - ठोस, स्थिर, स्नायुओं से यथावत् रूप में सुबद्ध तथा नगर की अगला-पागल के समान गोलाई लिए हुए थीं, इच्छित वस्तु प्राप्त करने के लिए नागराज के फैले हुए विशाल शरीर की तरह उनके दोर्ष बाहु थे, उनके पाणि-कलाई से के भाग उन्नत, कोमल. मांसल तथा सगठित थे, शभ लक्षणों से युक्त थे, अंगलियाँ मिलाने पर उनमें छिद्र दिखाई नहीं देते थे, उनके तल-हथेलियाँ ललाई लिए हुए, पतली, उजली, रुचिर देखने में रुचिकर, स्निग्ध सुकोमल थी, उनकी हथेली में चन्द्र, सूर्य, शंख, चक्र, दक्षिणावर्त स्वस्तिक की शुभ रेखाएं थी, उनका बक्षस्थल-सीना स्वर्ण-शिला के तल के समान उज्ज्वल, प्रशस्त समतल, उपचित-मांसल, विस्तीर्ण चौड़ा, पृथुल-(विशाल) था, उस पर श्रीवत्स-स्वस्तिक का चिह्न था, देह की मांसलता या परिपुष्टता के कारण रीढ़ की हड्डी नहीं दिखाई देती थी, उनका शरीर स्वर्ण के समान कान्तिमान्, निर्मल, सुन्दर, निरुपहत-रोग-दोष-वजित था, उसमें उत्तम पुरुष के 1008 लक्षण पूर्णतया विद्यमान थे, उनकी देह के पाव भाग—पसवाड़े नीचे की ओर क्रमशः संकड़े, देह के प्रमाण के अनुरूप, सुन्दर, सुनिष्पन्न, अत्यन्त समुचित परिमाण में मांसलता लिए हुए मनोहर थे, उनके वक्ष और उदर पर सीधे, समान, संहित-एक दूसरे से मिले हुए, उत्कृष्ट कोटि के, सूक्ष्म-हलके, काले, चिकने उपादेय--उत्तम, लावण्यमय, रमणीय बालों की पंक्ति थी, उनके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org