________________ भगवान् महावीर : पदार्पण] [17 चरमाणे, गामाणुग्गामं दूइज्जमाणे, सुहंसुहेणं विहरमाणे चंपाए नयरीए बहिया उवणगरग्गामं उवागए चंपं नार पुण्णभदं चेइयं समोसरिउकामे / १६---उस समय श्रमण----घोर तप या साधना रूप श्रम में निरत, भगवान्—-आध्यात्मिक ऐश्वर्यसम्पन्न, महावीर-उपद्रवों तथा विघ्नों के बीच साधना-पथ पर वीरतापूर्वक अविचल भाव से गतिमान्, आदिकर अपने युग में धर्म के प्राद्य प्रवर्तक, तीर्थकर साधु-साध्वी-श्रावक-श्राविका रूप चतुर्विध धर्म-तीर्थ-धर्मसंघ के प्रतिष्ठापक, स्वयं-संबुद्ध-स्वयं बिना किसी अन्य निमित्त के बोधप्राप्त, पुरुषोत्तम-पुरुषों में उत्तम, पुरुषसिंह-आत्म-शौर्य में पुरुषों में सिंह-सदृश, पुरुषवरपुंडरीक-मनुष्यों में रहते हुए कमल की तरह निलेप--प्रासक्तिशून्य, पुरुषवर-गन्धहस्ती-पुरुषों में उत्तम गन्धहस्ती के सदृश-जिस प्रकार गन्ध-हस्ती के पहुंचते ही सामान्य हाथी भाग जाते हैं, उसी प्रकार किसी क्षेत्र में जिनके प्रवेश करते ही दुर्भिक्ष, महामारी आदि अनिष्ट दूर हो जाते थे, अर्थात् अतिशय तथा प्रभावपर्ण उत्तम व्यक्तित्व के धनी. अभयप्रदायक--सभी प्राणियों के लिए अभयप्रदसंपूर्णतः अहिंसक होने के कारण किसी के लिए भय उत्पन्न नहीं करने वाले, चक्षु-प्रदायक-यान्तरिक नेत्र--सद्ज्ञान देने वाले, मार्ग-प्रदायक-सम्यक् ज्ञान, दर्शन, चारित्र रूप साधना-पथ के उद्बोधक, शरणप्रद–जिज्ञासु तथा मुमुक्षु जनों के लिए आश्रयभूत, जीवनप्रद–प्राध्यामिक जीवन के संबल, दीपक के सदृश समस्त वस्तुत्रों के प्रकाशक अथवा संसार-सागर में भटकते जनों के लिए द्वीप के समान पाश्रयस्थान, प्राणियों के लिए आध्यात्मिक उद्बोधन के नाते शरण, गति एवं प्राधारभूत, चार अन्त-सीमा युक्त पृथ्वी के अधिपति के समान धार्मिक जगत् के चक्रवर्ती, प्रतिधात-बाधा या आवरण रहित उत्तम ज्ञान, दर्शन आदि के धारक, व्यावृत्तछद्मा-अज्ञान आदि प्रावरण रूप छद्म से अतीत, जिन-राग आदि के जेता, ज्ञायक-राग आदि भावात्मक सम्बन्धों के ज्ञाता अथवा ज्ञापक-राग आदि को जीतने का पथ बताने वाले, तीर्ण-संसार-सागर को पार कर जाने वाले, तारक-संसार-सागर से पार उतारने वाले, मुक्त-बाहरी और भीतरी ग्रन्थियों से छूटे हुए, मोचक-दूसरों को छुड़ाने वाले, बुद्ध-बोद्धव्य-जानने योग्य का बोध प्राप्त किये हुए, बोधक-.. औरों के लिए बोधप्रद, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, शिव--कल्याणमय, अचल-स्थिर, निरुपद्रव, अन्तरहित, क्षयरहित, बाधारहित, अपुनरावर्तन–जहाँ से फिर जन्म-मरण रूप संसार में प्रागमन नहीं होता, ऐसी सिद्ध-गति... सिद्धावस्था नामक स्थिति पाने के लिए संप्रवृत्त, अर्हत् --पूजनीय, रागादिविजेता, जिन, केवली-केवलज्ञानयुक्त, सात हाथ को दैहिक ऊँचाई से युक्त, समचौरस संस्थान-संस्थित, वज्र-ऋषभ-नाराच-संहनन-अस्थिबन्ध युक्त, देह के अन्तर्वर्ती पवन के उचित वेग-गतिशीलता से युक्त, कंक पक्षी की तरह निर्दोष गुदाशय युक्त, कबूतर की तरह पाचन शक्ति युक्त, उनका अपान-स्थान उसी तरह निर्लेप था, जैसे पक्षी का, पीठ और पेट के नीचे के दोनों पार्श्व तथा जंघाएं सुपरिणित-सुन्दर-सुगठित थीं, उनका मुख पद्म-कमल अथवा पद्मनामक सुगन्धित द्रव्य तथा उत्पल-नील कमल या उत्पलकृष्ट नामक सुगन्धित द्रव्य जैसे सुरभिमय निःश्वास से युक्त था, छवि-उत्तम छविमान - उत्तम त्वचा युक्त, नीरोग, उत्तम, प्रशस्त, अत्यन्त श्वेत मांस युक्त, जल्ल--- कठिनाई से छूटने वाला मैल, मल्ल-प्रासानी से छुटने वाला मैल, कलंक--दाग, धब्बे, स्वेदपसीना तथा रज-दोष-मिट्टी लगने से विकृति-वजित शरीर युक्त, अतएव निरुपलेप-अत्यन्त स्वच्छ, दीप्ति से उद्योतित प्रत्येक अंगयुक्त, अत्यधिक सघन, सुबद्ध स्नायुबंध सहित, उत्तम लक्षणमय पर्वत के शिखर के समान उन्नत उनका मस्तक था, बारीक रेशों से भरे सेमल के फल. फटने से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org