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________________ अशोक वृक्ष सम्पन्न थे / वे क्रमश: प्रानुपातिक रूप में सुन्दर तथा गोलाकार विकसित थे। उनके एक-एकअविभक्त तना तथा अनेक शाखाएँ थी। उनके मध्य भाग अनेक शाखाओं और प्रशाखाओं का विस्तार लिये हुए थे। उनके सघन, विस्तृत तथा सुघड़ तने अनेक मनुष्यों द्वारा फैलाई हुई भुजाओं से भी गृहीत नहीं किये जा सकते थे-धेरे नहीं जा सकते थे। उनके पत्ते छेदरहित, अविरल-घने एक दूसरे से मिले हुए, अधोमुख नीचे की ओर लटकते हुए तथा उपद्रव-रहित-नीरोग थे। उनके पुराने, पीले पत्ते झड़ गये थे। नये, हरे, चमकीले पत्तों की सघनता से वहाँ अंधेरा तथा गम्भीरता दिखाई देती थी। नवीन, परिपुष्ट पत्तों, कोमल उज्ज्वल तथा हिलते हुए किसलयों--पूरी तरह नहीं पके हुए पत्तों, प्रवालों-- ताम्र वर्ण के नये निकलते पत्तों से उनके उच्च शिखर सुशोभित थे। उनमें कई वृक्ष ऐसे थे, जो सब ऋतुषों में फूलों, मंजरियों, पत्तों, फूलों के गुच्छों, गुल्मों-लता. कुजों तथा पत्तों के गुच्छों से युक्त रहते थे। कई ऐसे थे, जो सदा, समश्रेणिक रूप में एक कतार में स्थित थे। कई ऐसे थे, जो सदा युगल रूप में दो-दो की जोड़ी के रूप में विद्यमान थे / कई ऐसे थे, जो पुष्प, फल आदि के भार से नित्य विनमित-बहुत झुके हुए थे, प्रणमित-विशेष रूप से अभिनत-नमे हुए थे / यों विविध प्रकार की अपनी-अपनी विशेषताएँ लिये हुए वे वृक्ष अपनी सुन्दर लुम्बियों तथा मंजरियों के रूप में मानो शिरोभूषण-कलंगियाँ धारण किये रहते थे। तोते, मोर, मैना, कोयल, कोभगक, भिंगारक, कोण्डलक, चकोर, नन्दिमुख, तीतर, बटेर, बतख, चक्रवाक, कलहंस, सारस प्रभति पक्षियों द्वारा की जाती अावाज के उन्नत एवं मधर स्वरालाप से वे वक्ष गजित पे, सूरम्य प्रतीत होते थे। वहाँ स्थित मदमाते भ्रमरों तथा भ्रमरियों या मधुमक्खियों के समूह एवं पुष्परसमकरन्द के लोभ से अन्यान्य स्थानों से आये हुए विविध जाति के भँवर मस्ती से गुनगुना रहे थे, जिससे वह स्थान गुजायमान हो रहा था / वे वृक्ष भीतर से फूलों और फलों से आपूर्ण थे तथा बाहर से पत्तों से ढके थे। वे पत्तों और फूलों से सर्वथा लदे थे। उनके फल स्वादिष्ट, नीरोग तथा निष्कण्टक थे। वे तरह-तरह के फूलों के गुच्छों. लता-कुजों तथा मण्डपों द्वारा रमणीय प्रतीत होते थे, शोभित होते थे। वहाँ भिन्न-भिन्न प्रकार की सुन्दर ध्वजाएँ फहराती थीं। चौकोर, गोल तथा लम्बी बावड़ियों में जाली-झरोखेदार सुन्दर भवन बने थे। दूर-दूर तक जाने वाली सुगन्ध के संचित परमाणुगों के कारण वे वृक्ष अपनी सुन्दर महक से मन को हर लेते थे, अत्यन्त तृप्तिकारक विपुल सुगन्ध छोड़ते थे। वहाँ नानाविध, अनेकानेक पुष्पगुच्छ, लताकुज, मण्डप, विश्राम-स्थान, सुन्दर मार्ग थे, झण्डे लगे थे। वे वृक्ष अनेक रथों, वाहनों, डोलियों तथा पालखियों के ठहराने के लिए उपयुक्त विस्तीर्ण थे।। इस प्रकार के वृक्ष रमणीय, मनोरम, दर्शनीय, अभिरूप-मन को अपने में रमा लेने वाले तथा प्रतिरूप-मन में बस जाने वाले थे। अशोक-वृक्ष ५-तस्स गंवणसंडस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महं एक्के प्रसोगवरपायवे पण्णत्ते कुस-विकुसविसुद्ध-रुक्खमूले, मूलमंते, कंदमंते, जाव (खंधमते, तयामते, सालमते, पवालमते, पत्तमंते, पुष्फमंते, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003480
Book TitleAgam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1992
Total Pages242
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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