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________________ [औपपातिकसूत्र पाख्यायक-शुभ अशुभ बताने वाले, लंख-बांस के सिरे पर खेल दिखाने वाले, मंख--चित्रपट दिखाकर आजीविका चलाने वाले, तूणइल्ल-तूण नामक तन्तु-बाय बजाकर आजीविका कमाने वाले, तुबबीणिक--तुब-वीणा या पूगी बजाने वाले, तालाचर-ताली बजाकर मनोविनोद करने वाले आदि अनेक जनों से वह सेवित थी / पाराम-क्रीडावाटिका, उद्यान-बगीचे, कुएं, तालाब, बावडी, जल के छोटे-छोटे बाँध-इनसे युक्त थी, नंदनवन-सी लगती थी। वह ऊंची, विस्तीर्ण और गहरी खाई से युक्त थी, चक्र, गदा, भुसु डि-पत्थर फेंकने का एक विशेष अस्त्र---गोफिया, अवरोधअन्तर-प्राकार-शत्रु सेना को रोकने के लिए परकोटे जैसा भीतरी सुदृढ़ पावरक साधन, शतघ्नीमहायष्टि या महाशिला, जिसके गिराये जाने पर सैकड़ों व्यक्ति दब-कुचल कर मर जाएं और द्वार के छिद्र रहित कपाटयुगल के कारण जहाँ प्रवेश कर पाना दुष्कर था। धनुष जैसे टेढ़े परकोटे से वह घिरी हुई थी। उस परकोटे पर गोल प्राकार के बने हुए कपिशीर्षकों-कंगूरों-भीतर से शत्र-सैन्य को देखने आदि हेतु निर्मित बन्दर के मस्तक के आकार के छेदों से वह सुशोभित थी। उसके राजमार्ग, अट्टालक-परकोटे के ऊपर निर्मित प्राश्रय-स्थानों-गुमटियों, चरिका-परकोटे के मध्य बने हुए आठ हाथ चौड़े मार्गों, परकोटे में बने हुए छोटे द्वारों-बारियों, गोपुरों-नगरद्वारों, तोरणों से सुशोभित और सविभक्त थे। उसकी अर्गला और इन्द्रकील-गोपूर के किवाड़ों के प्रागे जड़े हए कीले भाले जैसी कीलें, सुयोग्य शिल्पाचार्यों-निपुण शिल्पियों द्वारा निर्मित थीं। विपणि-हाट-मार्ग, वणिकक्षेत्र व्यापार-क्षेत्र, बाजार आदि के कारण तथा बहुत से शिल्पियों, कारीगरों के आवासित होने के कारण वह सुख-सुविधा पूर्ण थी। तिकोने स्थानों, तिराहों, चौराहों, चत्वरों-जहाँ चार से अधिक रास्ते मिलते हों, ऐसे स्थानों, बर्तन आदि की दुकानों तथा अनेक प्रकार की वस्तुओं से परिमंडितसुशोभित और रमणीय थी। राजा की सवारी निकलते रहने के कारण उसके राजमार्गों पर भीड़ लगी रहती थी। वहाँ अनेक उत्तम घोड़े, मदोन्मत्त हाथी, रथसमूह, शिविका-पर्देदार पालखियां, स्यन्दमानिका-पुरुष-प्रमाण पाल खियां, यान–गाड़ियां तथा युग्य-पुरातनकालीन गोल्लदेश में सप्रसिद्ध दो हाथ लम्बे चौड़े डोली जैसे यान-इनका जमघट लगा रहता था। वहाँ खिले हुए कमलों से शोभित जल-जलाशय थे / सफेदी किए हुए उत्तम भवनों से वह सुशोभित, अत्यधिक सुन्दरता के कारण निनिमेष नेत्रों से प्रेक्षणीय, चित्त को प्रसन्न करने वाली, दर्शनीय, अभिरूप- मनोज्ञ--मन को अपने में रमा लेने वाली तथा प्रतिरूप--मन में बस जाने वाली थी। पूर्णभद्र चैत्य २-तीसे णं चंपाए णयरीए बहिया उत्तरपुरथिमे दिसीभाए पुण्णमद्दे नाम चेइए होत्थाचिराईए, पुवपुरिसपण्णत्ते पोराणे, सहिए, वित्तिए, कित्तिए, गाए, सच्छत्ते, सज्मए, सघण्टे, सपडागे, पडागाइपडागमंडिए, सलोमहत्थे, कयवेयड्डिए, लाउल्लोइयमहिए, गोसीस-सरसरतचंदण-दहरदिण्णपंचंगुलितले, उचियचंदणकलसे, चंदणघडसुकयतोरणपडिदुवारदेसभाए, आसत्तोसत्तविउलवट्टवग्घारियमल्लदामकलावे, पंचवण्णसरससुरभिमुक्कपुप्फुपुजोक्यारफलिए, कालागुरू-पवरकुदुरुषक-तुरुवकधूव-मघमघतगंधुद्धयाभिरामे, सुगंधवरगंधगंधिए, गंधवट्टिभूए--- गड-णग-जल्ल-मल्ल्ल-मुट्ठिय-वेलंबग-पवग-कहग-लासग-आइक्खग-लंख-मंख-तूणइल्ल-तुबवीणिय-भुयग-मागहपरिगए, बहुजणजाणवयस्स विस्सुयकित्तिए, बहुजणस्स आहुस्स आहुणिज्जे, पाणिज्जे, अच्चणिज्जे, वंदणिज्जे, नमंसणिज्जे, पूणिज्जे,सक्कारणिज्जे, सम्माणणिज्जे, कल्लाणं, मंगलं, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003480
Book TitleAgam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1992
Total Pages242
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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