________________ में अनेक पाठान्तर और मतान्तरों का भी संकेत है / वृत्ति के अन्त में अपने कुल और गुरु का नाम भी निर्दिष्ट किया है / यह भी लिखा है, इस वृत्ति का संशोधन अगाहिलपाटक नगर में द्रोणाचार्य ने किया / 16 3 प्रस्तुत प्रागम किस अंग का उपांग है ? इस प्रश्न पर चिन्तन करते हुए टीका में प्राचार्य अभयदेव ने लिखा है कि आचारांग का प्रथम अध्ययन शस्त्रपरिज्ञा है। उसका यह सूत्र है कि मैं कहाँ से आया हूँ और कहाँ जाऊंगा ? इस सूत्र में उपपात की चर्चा है. इसलिए यह अागम आचारांग का ही उपांग है / 146 प्रस्तुत आगम अभयदेववृत्ति के साथ सर्वप्रथम सन् 1875 में रायबहादुर धनपतसिंह ने कलकत्ता से प्रकाशित किया। उसके बाद 1880 में आगम संग्रह-कलकत्ता से और 1916 में आगमोदय समिति-बम्बई से अभयदेववृति के साथ प्रकट हा है। सन 1883 में प्रस्तावना आदि के साथ E. Lev.nann Lepizip, का प्रकाशन हया। प्राचार्य अमोलकऋषिजी ने हिन्दी अनुवाद सहित इसका संस्करण प्रकाशित किया / सन् 1963 में मूल हिन्दी अनुवाद के साथ संस्कृति रक्षक, संघ, मलाना से एक संस्करण प्रकाशित हुआ है। 1959 में जैन शास्त्रोद्धार समिति राजकोट से संस्कृत व्याख्या व हिन्दी गुजराती अनुबाद के साथ आचार्य श्री घासीलालजी म. ने संस्करण निकाला है / सन् 1936 में इसका मात्र मूल पाठ छोटेलाल पति ने जीवन कार्यालय-अजमेर से और पुपफभिक्ख ने सुत्तागमे के रूप में छपाया / प्रस्तुत संस्करण और सम्पादन इस प्रकार समय-समय पर अनेक संस्करण औपपातिक के प्रकाशित हुए हैं, किन्तु आधुनिक दृष्टि से शुद्ध मूल पाठ, प्रांजल भाषा में अनुवाद और आवश्यक स्थलों पर टिप्पण आदि के साथ अभिनव संस्करण की अत्यधिक मांग थी। उस मांग की पूर्ति श्रमण संघ के युवाचार्य महामहिम श्री मधुकरमुनिजी ने करने का भगीरथ कार्य अपने हाथ में लिया और अनेक मूर्धन्य मनीषियों के हार्दिक सहयोग से यह कार्य द्रुतगति से आगे बढ़ रहा है। प्रश्न-व्याकरण को छोड़ कर शेष दश अंग प्राय; प्रकाशित हो चुके हैं। भगवती जो विराट्काय आगम है, वह भी अनेक भागों में प्रकाशित हो रहा है। प्रस्तुत आगम के साथ युवाचार्यश्री ने उपांग साहित्य को प्रकाशित करने का श्रीगणेश किया है। यूवाचार्यश्री प्रकृष्ट प्रतिभा के धनी हैं और साथ ही मेरे परमश्रद्धेय स श्रीपुष्करमुनिजी म. के अनन्य सहयोगी और साथी हैं। युवाचार्यश्री के प्रबल प्रयास से यह कार्य प्रगति पर है, यह प्रसन्नता है। 143. चन्द्रकुल विपुल भूतलयुगप्रवर वर्धमानकल्पतरो:। कुसुमोपमस्य सूरेः गुणसौरभभरितभवनस्य // 1 // निस्सम्बन्ध बिहारस्य, सर्वदा श्रीजिनेश्वराह्वस्य / शिष्येणाभयदेवाख्यसरिणेयं कृता वृत्ति : / / 2 / / अणहिलपाटक नगरे श्रीमद्रोणाच्यमूरिमुख्येन / पण्डितगुणेन गुणवत्प्रियेण, संशोधिता चेयम् / / 3 / / 144. इदं चोपाल वर्तते, प्राचारोगस्य हि प्रथममध्ययनं शस्त्रपरिज्ञा, तस्यायोदेशके सूत्रमिदम् ‘एवमेगेसि' नो नायं भवइ, अत्थि वा में पाया उबवाइए, नत्थि वा में पाया उववाइए, के वा अहं प्रासी ? के वा इह [अहं] च्चुए [इनो चुनो] पेच्चा इह भबिस्सामि' इत्यादि, इह च सूत्रे यदीपपातिकत्वमात्मनो निर्दिष्टं तदिह प्रपञ्च्यत इत्यर्थतोऽङ्गस्य समीपभावेनेदमुपाङ्गम् / ___-प्रौपपातिक अभयदेववत्ति [ 39] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org