________________ 18 सम्मज्जक--अनेक बार उन्मज्जन करके स्नान करने वाले। 19. निमज्नक स्नान करते समय कुछ क्षणों के लिए जल में डूबे रहने वाले / 20. सम्पखाल-शरीर पर मिट्टी घिस कर स्नान करने वाले। 21. दक्षिणकूलग--गंगा के दक्षिण तट पर रहने वाले। 22. उत्तरकुलग-गंगा के उत्तर तट पर रहने वाले / 23. संखधमक...-शंख बजाकर भोजन करने वाले / वे शंख इसलिए बजाते थे कि अन्य व्यक्ति भोजन करते समय न प्रायें। 24. कूलधमक-किनारे पर खड़े होकर उच्च स्वर करते हुए भोजन करने वाले। 25. मियलुद्धक-पशु-पक्षियों का शिकार कर भोजन करने वाले / 26. हत्यीतावस-जो हाथी को मारकर बहुत समय तक उसका भक्षण करते थे / इन तपस्वियों का यह अभिमत था कि एक हाथी को एक वर्ष या छह महीने में मार कर हम केवल एक ही जीव का वध करते हैं, अन्य जीवों को मारने के पाप से बच जाते हैं। टीकाकार के अभिमतानुसार हस्तीतापस बौद्ध भिक्षु थे। 5 ललितविस्तर में हस्तीव्रत तापसों का उल्लेख है / 6* महावग्ग में भी दुर्भिक्ष के समय हाथी आदि के मांस खाने का उल्लेख मिलता है। 27. उड्ढडंक-दण्ड को ऊपर उठाकर चलने वाले / प्राचारांग चूणि" में उड्ढडंक, बोड़िय, और सरक्ख आदि साधुओं के साथ उसकी परिगणना की है। ये साधु केवल शरीर मात्र परिग्रही थे। पाणिपुट में ही भोजन किया करते थे। 28. दिसापोक्खी-जल से दिशाओं का सिंचन कर पुष्प-फल आदि बटोरने वाले। भगवती सूत्र में हस्तिनापुर के शिवराजर्षि का उपाख्यान है। उन्होंने दिशा-प्रोक्षक तपस्वियों के निकट दीक्षा ग्रहण की थी / वाराणसी का सोमिल ब्राह्मण तपस्वी भी चार दिशाओं का अर्चक था / प्रावश्यकचणि.. के अनुसार राजा प्रसन्नचन्द्र अपनी महारानी के साथ दिशा-प्रोक्षकों के धर्म में दीक्षित हया था / वसुदेवहिडी०१ और दीघनिकाय१०२ में भी दिसापोक्खी तापसों का वर्णन है। 29. वक्कवासी-वल्कल के वस्त्र पहनने वाले। 95. सूत्रकृतांग टीका, 206. 96. ललितविस्तर, पृ. 248. 96. महावग्ग-६।१०।२२. पृ. 235. 97. आचारांग चूर्णि-५, पृ. 169. 98. भगवती सूत्र-११२९. 99, निरयावलिका-३, पृ. 37-40. 100. आवश्यकचूर्णि, पृ. 457. 101. वसुदेवहिडी, पृ. 17. 102. दीघनिकाय, सिगालोववादसुत्त [31] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org