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________________ भगवान महावीर के चित्ताकर्षक व्यक्तित्व को विविध उपमाओं से मण्डित कर हबह शब्द चित्र उपस्थित किया है, विराट कृतित्व के धनी का व्यक्तित्व यदि अद्भुत नहीं है, तो जन-मानस पर उसका प्रभाव नहीं पड़ सकता / यही कारण है कि विश्व के सभी चिन्तकों ने अपने महापुरुष को सामान्य व्यक्तियों से पृथक रूप में विशिष्ट रूप से चित्रित किया है। तीर्थकर विश्व में सबसे महान अनुपम शारीरिक-वैभव से विभूषित होते हैं। उनके शरीर में एक हजार आठ प्रशस्त लक्षण बताये गए हैं / डा. विमलचरण लॉ ने लिखा है-बौद्ध साहित्य बुद्ध के शरीरगत लक्षणों की संख्या बाईस बताते हैं, वहाँ औपपातिक सूत्र में महावीर के शरीरगत लक्षणों की संख्या आठ हजार बताई है।५३ डॉ. विमलचरण लॉ को यहाँ पर संख्या के सम्बन्ध में भ्रान्ति हुई है। प्रस्तुत प्रागम में "अट्रसहस्स" यह पाठ है और टीकाकार ने 'अष्टोत्तर सहस्रम्' लिखा है।५४ जिसका अर्थ एक हजार आठ है। तीर्थकर जन दृष्टि से एक विलक्षण व्यक्तित्व के धनी होते हैं, सामान्य व्यक्ति में एकाध शुभ लक्षण होता है। उससे बढ़ कर व्यक्ति में बत्तीस लक्षण पाये जाते हैं। उससे भी उत्तम व्यक्ति में एक सौ आठ लक्षण होते हैं। लौकिक सम्पदा के उत्कृष्ट धनी चक्रवर्ती में एक हजार पाठ लक्षण होते हैं पर वे कुछ अस्पष्ट होते हैं, जबकि तीर्थकर में वें पूर्ण स्पष्ट होते है / लॉ ने बुद्ध के बाईस लक्षण कैसे कहे हैं ? यह चिन्तनीय है। तपः एक विश्लेषण औपपातिक में श्रमणों के तप का सजीव चित्रण हुआ है। तप साधना का ओज है तेज है और शक्ति है। तप:शून्य साधना निष्प्राण है। साधना का भव्य प्रासाद तप की सुदृढ़ नींव पर आधारित है। साधना-प्रणाली, चाहे वह पूर्व में विकसित हुई हो अथवा पश्चिम में फली और फूली हो, उसके अन्तस्तल में तप किसी न किसी रूप में रहा हा है। तप में त्याग की भावना प्रमुख होती है और उसी से प्रेरित होकर साधक प्रयास करता है। भारतीय सांस्कृतिक जीव का हम अध्ययन करें तो यह सूर्य के प्रकाश की भाँति स्पष्ट हुए बिना नहीं रहेगा कि चाहे भगवान महावीर की अध्यात्मवादी विचार-धारा रही हो या भौतिकवादी अजितकेसकम्बलि या नियतिवादी गोशालक की विचार-धारा रही हो, सभी में तप के स्वर झंकृत हुए हैं किन्तु साधना-पद्धतियों में तप के लक्ष्य और स्वरूप के सम्बन्ध में कुछ विचारभेद अवश्य रहा है। श्री भरतसिंह उपाध्याय का यह अभिमत है कि जो कुछ भी शाश्वत है, जो कुछ भी उदात्त और महत्त्वपूर्ण है, वह सब तपस्या से ही संभूत है। प्रत्येक साधनाप्रणाली चाहे यह अध्यात्मिक हो, चाहे भौतिक हो, सभी तपस्या की भावना से अनुप्राणित है।५५ / तप के सम्बन्ध में अनुचिन्तन करते हुए सुप्रसिद्ध गांधीवादी विचारक काका कालेलकर ने लिखा है-"बद्धकालीन भिक्षुओं की तपस्या के परिणामस्वरूप ही अशोक के साम्राज्य का और मौर्यकालीन संस्कृति का विस्तार हो पाया। शंकराचार्य की लपश्चर्या से हिन्दू धर्म का संस्करण हुआ। महावीर की तपस्या से अहिंसा धर्म का प्रचार हुआ और चैतन्य महाप्रभु, जो मुखशुद्धि के हेतु एक हर भी मुंह में नहीं रखते थे, उनके तप से बंगाल में वैष्णव संस्कृति विकसित हुई।५६" और महात्मा गांधी के फलस्वरूप ही भारत सर्वतंत्र स्वतन्त्र हुआ है। भगवान महावीर स्वयं उग्र तपस्वी थे। अत: उनका शिष्यवर्ग तप से कैसे अछूता रह सकता था? वर भी उग्र तपस्वी था। जैन तप-विधि की यह विशेषता रही है कि वह प्रात्म-परिशोधन-प्रधान है। देहदण्ड 53. पोपपातिकसूत्र, पृ. 12. अट्टसहस्सवरपुरिसालक्खणधरे / 54. Some Jaina Canonical Sutras, P.73. 55. बौद्धदर्शन और अन्य भारतीय दर्शन प्र. सं. पृ. 71-72 56. जीवन साहित्य-द्वितीय भाग पृ. 117-115. [24] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003480
Book TitleAgam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1992
Total Pages242
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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