________________ परिशिष्ट-१ 'गज' और 'कुल' संबंधी विशेष विचार गण भगवान महावीर का श्रमण-संघ बहुत विशाल था। अनुशासन, व्यवस्था, संगठन, संचालन आदि की दृष्टि से उसकी अपनी अप्रतिम विशेषताएँ थीं। फलतः उत्तरवर्ती समय में भी वह समीचीनतया चलता रहा, आज भी एक सीमा तक चल रहा है। भगवान महावीर के नौ गण थे, जिनका स्थानांग सूत्र में उल्लेख' है१. गोदास गण, 2. उत्तरबलिस्सह गण, 3. उद्देह गण, 4. चारण गण, 5. उद्दवाइय गण, 6. विस्सवाइय गण, 7. काद्धिक गण, 8. मानव गण, 9. कोटिक गण / इन गणों की स्थापना का मुख्य आधार प्रागम-वाचना एवं धर्म क्रियानुपालन की व्यवस्था था। अध्ययन द्वारा ज्ञानार्जन श्रमण-जीवन का अपरिहार्य अंग है। जिन श्रमणों के अध्ययन की व्यवस्था एक साथ रहती थी, वे एक गण में समाविष्ट थे। अध्ययन के अतिरिक्त क्रिया अथवा अन्यान्य व्यवस्थाओं तथा कार्यों में भी उनका साहचर्य तथा ऐक्य था। गणस्थ श्रमणों के अध्यापन तथा देखभाल का कार्य या उत्तरदायित्व गणधरों पर था। भगवन् महावीर के ग्यारह गणधर थे 1. इन्द्रभूति, 2. अग्निभूति, 3. वायुभूति, 4. व्यक्त, 5. सुधर्मा, 6. मण्डित, 7. मौर्यपुत्र 8. अकम्पित, 9. अचलभ्राता, 10. मेतार्य, 11. प्रभास / इन्द्रभूति भगवान महावीर के प्रथम व प्रमुख गणधर थे। वे गौतम गोत्रीय थे, इसलिए प्रागम-वाङमय और जैन परंपरा में वे गौतम के नाम से प्रसिद्ध हैं। प्रथम से सप्तम तक के गणधरों के अनुशासन में उनके अपने-अपने गण थे। अष्टम तथा नवम गणधर का सम्मिलित रूप में एक गण 1. समणस्स गं भगवनो महावीरस्स' णव गणा हुत्था, तं जहा–गोदासगणे, उत्तरबलिस्सहगणे, उद्देहगणे, चारणगणे, उद्दवाइयगणे, विस्सवाइयगणे, कामढियगणे, माणवगणे, कोडियगणे। ---ठाणं 9. 29, पृष्ठ 856 2. जैनधर्म का मौलिक इतिहास, प्रथम भाग, पृष्ठ 473 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org