________________ सिद्ध : सारसंक्षेप] [11 १८५-८६-जह सव्वकामगुणियं, पुरिसो भोत्तूण भोयणं कोई। तण्हाछुहाविमुक्को, अच्छेज्ज जहा प्रमियतित्तो // 18 // इय सव्वकालतित्ता, अतुलं निव्वाणमुवगया सिद्धा। सासयमस्वाबाहं, चिट्ठति सुही सुहं पत्ता // 19 // १८५-८६-जैसे कोई पुरुष अपने द्वारा चाहे गये सभी गुणों-विशेषताओं से युक्त भोजन कर, भूख-प्यास से मुक्त होकर अपरिमित तृप्ति का अनुभव करता है, उसी प्रकार सर्वकालतप्त-- सब समय परम ताप्ति युक्त, अनुपम शान्तियुक्त सिद्ध शाश्वत--नित्य तथा अव्याबाध-सर्वथा विघ्नबाधारहित परम सुख में निमग्न रहते हैं। १८७-सिद्धत्ति य बुद्धत्ति य, पारगयत्ति य परंपरगयत्ति। उम्मुक्ककम्मकवया, प्रजरा प्रमरा प्रसंगा य // 20 // १८७-वे सिद्ध हैं-उन्होंने अपने सारे प्रयोजन साध लिये हैं। वे बुद्ध हैं-केवलज्ञान द्वारा समस्त विश्व का बोध उन्हें स्वायत्त है। वे पारगत हैं-संसार-सागर को पार कर चुके हैं। वे परंपरागत हैं-परंपरा से प्राप्त मोक्षोपायों का अवलम्बन कर वे संसार-सागर के पार पहुंचे हए हैं। वे उन्मुक्त-कर्मकवच हैं-- जो कर्मों का बख्तर उन पर लगा था, उससे वे छूटे हुए हैं। वे अजर हैं -.. वृद्धावस्था से रहित हैं / अमर हैं--मृत्युरहित हैं-तथा वे प्रसंग हैं-सब प्रकार की प्रासक्तियों से तथा समस्त पर-पदार्थों के संसर्ग से रहित हैं। १८८-णिस्थिण्णसम्वदुक्खा, जाइजरामरणबंधणविमुक्का / प्रवाबाहं सुक्खं, अणुहोति सासयं सिद्धा // 21 // १८८-सिद्ध सब दुःखों को पार कर चुके हैं जन्म, बुढ़ापा तथा मृत्यु के बन्धन से मुक्त हैं। निर्बाध, शाश्वत सुख का अनुभव करते हैं / १८९.-अतुलसुहसागरगया, अव्याबाहं प्रणोवमं पत्ता / सव्यमणागयमद्धं, चिट्ठति सुही सुहं पत्ता // 22 // १८९---अनुपम सुख-सागर में लीन, निधि, अनुपम मुक्तावस्था प्राप्त किये हुए सिद समग्र अनागत काल में भविष्य में सदा प्राप्तसुख, सुखयुक्त अवस्थित रहते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org