________________ कि प्रस्तुत आमम में जो वर्णन है, उसके सामने सामनफलसुत्त का वर्णन शिथिल है, उतना महत्त्वपूर्ण नहीं है। सामअफलसुत्त में केवल इतना ही वर्णन है कि आज से भगवान् मुझे अंजलिबद्ध शरणागत उपासक समझे पर प्रस्तुत आगम में श्रमण भगवान महावीर के प्रति अनन्य भक्ति कणिक की प्रशित की गई है। उसने एक प्रवृत्ति-वादुक (संवाददाता) व्यक्ति की नियुक्ति की थी। उसका कार्य था भगवान महावीर की प्रतिदिन की प्रवृत्ति से उसे अवगत कराते रहना। उसकी सहायता के लिए अनेक कर्मकर नियुक्त थे, उनके माध्यम से भ. महावीर के प्रतिदिन के समाचार उस प्रवृत्ति-वादुक को मिलते और वह राजा कणिक को बताता था। उसे कणिक विपुल अर्थदान देता था। प्रवृत्ति-वादुक द्वारा समाचार ज्ञात होने पर भक्ति-भावना से विभोर होकर अभिवन्दन करना, उपदेश श्रवण के लिए जाना और निर्ग्रन्थ धर्म पर अपनी अनन्य श्रद्धा व्यक्त करना। इस वर्णन के सामने तथागत बुद्ध के प्रति जो उसकी श्रद्धा है, वह केवल औपचारिक है।* अजातशत्रु कणिक का बुद्ध से साक्षात्कार केवल एक बार होता है, पर महावीर से उसका साक्षात्कार अनेक बार होता है। 33 भगवान महावीर के परिनिर्वाण के पश्चात् भी महावीर के उत्तराधिकारी गणधर सुधर्मा की धर्म-सभा में भी वह उपस्थित होता है / 34 डा. स्मिथ का मन्तव्य है-बौद्ध और जैन दोनों ही अजातशत्रु को अपना-अपना अनुयायी होने का दावा करते हैं, पर लगता है जैनों का दावा अधिक प्राधारयुक्त है / 35 डॉ. राधाकुमुद मुखर्जी ने लिखा है—महावीर और बुद्ध की वर्तमानता में तो अजातशत्रु महावीर का ही अनुयायी था। उन्होंने आगे चलकर यह भी लिखा है, जैसा प्राय: देखा जाता है, जैन अजातशत्रु और उदाईभद्द दोनों को अच्छे चरित्र का बतलाते हैं। क्योंकि दोनों जैनधर्म को मानने वाले थे। यही कारण है कि बौद्ध ग्रन्थों में उनके चरित्र पर कालिख पोती गई है।३७ अजातशत्रु बुद्ध का अनुयायी नहीं था, इसके भी अनेक कारण हैं१. अजातशत्रु की देवदत्त के साथ मित्रता थी, जबकि देवदत्त बुद्ध का विरोधी शिष्य था / 2. अजातशत्रु की बज्जियों के साथ शत्रुता थी, वज्जी लोग बुद्ध के परम भक्तों में थे। 3. अजातशत्रु ने प्रसेनजित के साथ युद्ध किया, जबकि प्रसेनजित बुद्ध का परम भक्त और अनुयायी था / तथागत बुद्ध की अजातशत्रु के प्रति सद्भावना नहीं थी। उन्होंने अजातशत्रु के सम्बन्ध में अपने भिक्षुओं को कहा-इस राजा का संस्कार अच्छा नहीं है। यह राजा अभागा है / यदि यह राजा अपनेधर्मराज-पिता की हत्या न करता तो आज इसी आसन पर बैठे-बैठे इसे नीरज-निर्मल धर्म-चक्षु उत्पन्न हो जाता 138 देवदत्त के * आगम और त्रिपिटिक : एक अनुशीलन, पृ. 333 33. स्थानांगवृत्ति, स्था. 4, उ. 3 34. (क) ज्ञाताधर्मकयांगसूत्र, सू. 1-5 (ख) परिशिष्ट पर्व, सर्ग 4, श्लो. 15-54 35. Both Buddhists and Jains claimed his one of themselves. The Jain claim appears to be well founded - Oxford History of India by V. A. Smith, Second Edition Oxford 1923, P.51 36. हिन्दू सभ्यता, पृ. 190-1 37. हिन्दू सभ्यता, पृ. 264 38. दीघनिकाय सामञफलसुत्त, पृ. 32 [21] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org