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________________ 168] [औपपातिकसूत्र गोयमा ! केवली णं चत्तारि कम्मंसा अपलिक्खीणा भवंति, तं जहा-१. वेयणिज्ज, 2. पाउयं, 3. णाम, 4. गोत्तं / सस्वबहुए से वेयणिज्जे कम्मे भवइ / सम्वत्थोए से पाउए कम्मे भवइ / विसमं समं करेइ बंधणेहि ठिईहि य, विसमसमकरणयाए बंधणेहि ठिईहि य / एवं खलु केवली समोहणंति, एवं खलु केवली समुग्घायं गच्छति / १४१-भगवन् ! केवली किस कारण समुद्घात करते हैं प्रात्मप्रदेशों को विस्तीर्ण करते हैं। गौतम ! केवलियों के वेदनीय, आयुष्य, नाम तथा गोत्र—ये चार कर्माश अपरिक्षीण होते हैं सर्वथा क्षीण नहीं होते, उनमें वेदनीय कर्म सबसे अधिक होता है, अायुष्य कर्म सबसे कम होता है, बन्धन एवं स्थिति द्वारा विषम कर्मों को वे सम करते हैं / यों बन्धन और स्थिति से विषम कर्मों को सम करने हेतु केवली प्रात्मप्रदेशों को विस्तीर्ण करते हैं, समुद्घात करते हैं। १४२–सम्धे विणं भंते ! केवली समुग्घायं गच्छंति ? णो इणठे समझे अकित्ता णं समुग्घायं, अणंता केवली जिणा। जरामरणविष्पमुक्का, सिद्धि बरगई गया / १४२-भगवन् ! क्या सभी केवली समुद्घात करते हैं ? गौतम ! ऐसा नहीं होता। समृदयात किये बिना ही अनन्त केवली, जिन-बीतराग (जन्म,) वृद्धावस्था तथा मृत्यु से विप्रमुक्त-सर्वथा रहित होकर सिद्धि-सिद्धावस्था रूप सर्वोत्कृष्ट गति को प्राप्त हुए हैं। समुद्घात का स्वरूप १४३-कइसमए णं भंते ! आउज्जीकरणे पण्णते ? गोयमा! असंखेज्जसमइए अंतोमुहुत्तिए पण्णत्ते / 143- भगवन् ! आवर्जीकरण--उदीरणावलिका में कर्मप्रक्षेप व्यापार-कर्मों को उदयावस्था में लाने का प्रक्रियाक्रम कितने समय का कहा गया है ? गौतम् ! वह असंख्येय समयवर्ती अन्तर्मुहूर्त का कहा गया है। १४४---केवलिसमुग्धाए णं भंते / फइसमइए पपणते ? गोयमा! अद्वसमइए पण्णते। तं जहा—पढमे समए दंडं करेइ, बिईए समए कवाई करेइ, तइए समए मंथं करेइ, चउत्थे समये लोयं पूरेइ, पंचमे समए लोयं पडिसाहरह, छठे समए मंथं पडिसाहरह, सत्तमे समए कवाडं पडिसाहरइ, अट्ठमे समए दंडं पडिसाहरइ। तो पच्छा सरीरत्थे भव। 144- भगवन् ! केवली-समुद्घात कितने समय का कहा गया है ? गौतम ! केवली-समुद्घात पाठ समय का कहा गया है / जैसे—पहले समय में केवली आत्म Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003480
Book TitleAgam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1992
Total Pages242
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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