________________ निषों का उपपास] [159 था। आचार्य श्रीगुप्त ने रोहगुप्त को मयूरी, नकुली, विडाली आदि उन विद्याओं को निरस्त करने वाली विद्याएँ सिखला दीं। राजसभा में चर्चा प्रारम्भ हुई। पोट्टशाल बहुत चालाक था। उसने रोहगुप्त को पराजित करना कठिन समझ कर रोहगुप्त के पक्ष को ही अपना पूर्वपक्ष बना लिया, जिससे रोहगुप्त उसका खण्डन न कर सकें। उसने कहा-जगत् में दो ही राशियाँ हैं---जीवराशि और अजीवराशि / रोहगुप्त असमंजस में पड़ गए / दो राशियों का पक्ष ही उन्हें मान्य था, किन्तु पोदृशाला को पराजित न करने और उसके पक्ष को स्वीकार कर लेने से अपयश होगा, इस विचार से उन्होंने जीव, अजीव तथा नोजीव-इन तीन राशियों की स्थापना की। तर्क द्वारा अपना मत सिद्ध किया / पोट्टशाला द्वारा प्रयुक्त वृश्चिकी, सी तथा मूषिकी आदि विद्याओं को मयूरी, नकुल एवं विडाली आदि विद्याओं द्वारा निरस्त कर दिया / पोट्टशाल पराजित हो गया / रोहगुप्त गुरु के पास आये / सारी घटना उन्हें बतलाई। आचार्य श्रीगुप्त ने रोहगुप्त से कहा कि तीन राशियों की स्थापना कर उसने (रोहगुप्त ने) उचित नहीं किया। यह सिद्धान्तविरुद्ध हुआ। अतः वह वापस राजसभा में जाए और इसका प्रतिवाद करे। रोहगुप्त ने इसे अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया। वे वैसा नहीं कर सकें। उन्होंने त्रैराशिकवाद का प्रवर्तन किया। 7. प्रबद्धिकवाद-कर्म जीव के साथ बँधता नहीं, वह केंचुल की तरह जीव का मात्र स्पर्श किये साथ लगा रहता है। अबद्धिकवादी ऐसा मानते हैं / गोष्ठमाहिल इस बाद के प्रवर्तक थे / ' इसके प्रवर्तन की कथा इस प्रकार है --- दुर्बलिका पुष्यमित्र, जो आर्यरक्षित के उत्तराधिकारी थे, अपने विन्ध्य नामक शिष्य को कर्म-प्रवाद के बन्धाधिकार का अभ्यास करा रहे थे / वहाँ यथाप्रसंग कर्म के द्विविध रूप की चर्चा आई-जैसे गीली दीवार पर सटाई गई मिट्टी दीवार से चिपक जाती है, वैसे ही कुछ कर्म ऐसे हैं, जो प्रात्मा के साथ चिपक जाते है, एकाकार हो जाते हैं। जिस प्रकार सूखी दीवार पर सटाई गई मिट्टी केवल दीवार का स्पर्श कर गीचे गिर जाती है, उसी प्रकार कुछ कर्म ऐसे हैं, जो प्रात्मा का स्पर्श मात्र करते हैं, गाढ रूप में बंधते नहीं। गोष्ठामाहिल ने यह सुना / वह सशंक हुआ। उसने अपनी शंका उपस्थित की कि यदि आत्मा और कर्म एकाकार हो जाएं तो बे पृथक-पृथक नहीं हो सकते / अत: यही न्याय-संगत है कि कर्म प्रात्मा के साथ बंधते नहीं, आत्मा का केवल संस्पर्श करते हैं। दुर्बलिका पुष्यमित्र ने गोष्ठामाहिल को बस्तु-स्थिति समझाने का प्रयत्न किया पर ने अपना दराग्रह नहीं छोडा तथा अबद्धिकवाद का प्रवर्तन किया। बहुरतवाद भगवान् महावीर के कैवल्य-प्राप्ति के चौदह वर्ष पश्चात्, जीवप्रादेशिकवाद कैवल्य-प्राप्ति के सोलह वर्ष पश्चात्, अव्यक्तवाद भगवान महावीर के निर्वाण के एक सौ चौदह वर्ष पश्चात्, सामुच्छेदिकवाद निर्वाण के दो सौ वर्ष पश्चात्, द्वैक्रियवाद निर्वाण के दो सौ अट्ठाईस वर्ष पश्चात्, त्रैराशिकवाद निर्वाण के पाँच सौ चवालीस वर्ष पश्चात् तथा अबद्धिकवाद निर्वाण के छह सौ नौ वर्ष पश्चात् प्रवर्तित हुआ। 1. अबद्धं सत् कर्म कञ्चुकवत् पार्वतः स्पृष्टमात्र जीवं समनुगच्छतीत्येवं वदन्तीत्यबद्धिकाः, गोष्ठामाहिलमतावलम्बितः / ---औपपातिक सूत्र बृत्ति पत्र 106 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org