SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 193
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 150] [औपपातिकसूत्र चक्रवर्ती के एतत्संज्ञक रत्न के लक्षणों की पहचान, 46. वास्तु-विद्या-भवन-निर्माण की कला, 47. स्कन्धावार-मान-शत्रुसेना को जीतने के लिए अपनी सेना का परिमाण जानना, छावनी लगाना, मोर्चा लगाना आदि की जानकारी, 48. नगर-निर्माण, विस्तार प्रादि की कला अथवा युद्धोपयोगी विशेष नगर-रचना की जानकारी, जिससे शत्रु पर विजय प्राप्त की जा सके, 49. वास्तुनिवेशन-- - भवनों के उपयोग, विनियोग आदि के सम्बन्ध में विशेष जानकारी, 50. न्यूह-आकार-विशेष में सेना स्थापित करने या जमाने की कला, प्रतिव्यूह-शत्रु द्वारा रचे गये व्यूह के प्रतिपक्ष में-मुकाबले तत्प्रतिरोधक दूसरे व्यूह की रचना का ज्ञान, 51. चार--- चन्द्र, सूर्य, राहु, केतु प्रादि ग्रहों की गति का ज्ञान अथवा राशि गण, वर्ण, वर्ग आदि का ज्ञान, प्रतिचार–इष्टजनक, अनिष्टनाशक शान्तिकर्म का ज्ञान, 52. चक्रव्यूह-चक्र-रथ के पहिये के आकार में सेना को स्थापित-सज्जित करना, 53. गरुडव्यूह- गरुड के आकार में सेना को स्थापित-सज्जित करना, 54. शकट-व्यूह -गाड़ी के आकार में सेना को स्थापित-सज्जित करना, 55. युद्ध-लड़ाई की कला, 56. नियुद्ध --पैदल युद्ध करने की कला, 57. युद्धातियुद्ध-तलवार. भाला प्रादि फेंककर युद्ध करने की कला, 58. मुष्टि-युद्ध-मुक्कों से लड़ने में निपुणता, 59. बाहु-युद्ध--भुजाओं द्वारा लड़ने की कला, 60. लता-युद्ध-जैसे बेल वृक्ष पर चढ़ कर उसे जड़ से लेकर शिखर तक आवेष्टित कर लेती है, उसी प्रकार जहाँ योद्धा प्रतियोद्धा के शरीर को प्रगाढतया उपदित कर भूमि पर गिरा देता है और उस पर चढ़ बैठता है, 61. इषुशस्त्र-नागबाण प्रादि के प्रयोग का ज्ञान, क्षुर-प्रवाह-छुरा आदि फेंककर वार करने का ज्ञान, 62. धनुर्वेदधनुर्विद्या, 63. हिरण्यपाक-रजत-सिद्धि, 64. सुवर्ण-पाक-सुवर्ण-सिद्धि, 65. वृत्त-खेल-रस्सी प्रादि पर चलकर खेल दिखाने की कला, 66. सूत्र-खेल-सूत द्वारा खेल दिखाने, कच्चे सूत द्वारा करिश्मे बतलाने की कला, 67, नालिका-खेल--नालिका में पासे या कोड़ियां डालकर गिरानाजूमा खेलने की एक विशेष प्रक्रिया की जानकारी, 68. पत्रच्छेद्य-एक सो पाठ पत्तों में यथेष्ट संख्या के पत्तों को एक बार में छेदने का हस्त-लाघव, 69. कटच्छेद्य चटाई की तरह क्रमशः फैलाये हुए पत्र आदि के छेदन की विशेष प्रक्रिया में नैपुण्य, 70. सजीव-पारद अादि मारित धातुओं को पुनः सजीव करना--सहज रूप में लाना, 71. निर्जीव-पारद, स्वर्ण आदि धातुओं का मारण करना तथा 72. शकुन-रुत-पक्षियों के शब्द, गति, चेष्टा आदि जानने की कला / ये बहत्तर कलाएँ सधाकर, इनका शिक्षण देकर, अभ्यास कराकर कलाचार्य बालक को मातापिता को सौंप देंगे। १०८-तए णं तस्स दढपदण्णस्स दारगस्स अम्मापियरो तं कलायरिय विउलेणं प्रसण पाणखाइमसाइमेणं वत्थगंधमल्लालंकारेण य सक्कारेहिति, सक्कारेत्ता सम्माहिति, सम्माणेत्ता विउलं जीवियारिहं पीइदाणं दलइस्संति, दलात्ता पडिविसज्जेहिति / १०८-तब बालक दृढप्रतिज्ञ के माता-पिता कलाचार्य का विपुल-प्रचुर अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य, वस्त्र, गन्ध, माला तथा अलंकार द्वारा सत्कार करेंगे, सम्मान करेंगे / सत्कार-सम्मान कर उन्हें विपुल, जीविकोचित—जिससे समुचित रूप में जीवन-निर्वाह होता रहे, ऐसा प्रीतिदान–पुरस्कार देंगे / पुरस्कार देकर प्रतिविसर्जित करेंगे--विदा करेंगे / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003480
Book TitleAgam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1992
Total Pages242
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy