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________________ 148] [ोपपातिकसूत्र १०४-से णं तत्थ गवाह मासाणं बहुपडिपुण्णाणं अट्ठमाणराइंदियाणं वीइक्कंताणं सुकुमालपाणिपाए, जाव (अहोणपडिपुण्णचिदियसरीरे, लक्खणवंजणगुणोववेए, माणुम्माणप्पमाणपडिपुण्णसुजायसवंगसुदरंगे,) ससिसोमाकारे, कंते, पियदसणे, सुरूवे दारए पयाहिति / १०४-नौ महीने साढ़े सात दिन व्यतीत होने पर बच्चे का जन्म होगा। उसके हाथ-पैर सुकोमल होंगे। उसके शरीर की पाँचों इन्द्रियाँ अहीन-प्रतिपूर्ण– रचना की दृष्टि से अखण्डित एवं सम्पूर्ण होंगी। वह उत्तम लक्षण-सौभाग्यसूचक हाथ की रेखाएँ आदि, व्यंजन-उत्कर्षसूचक तिल, मस आदि चिह्न तथा गुणयुक्त होगा। दैहिक फैलाव, वजन, ऊँचाई आदि की दृष्टि से वह परिपूर्ण, श्रेष्ठ तथा सर्वांगसुन्दर होगा। उसका श्राकार चन्द्र के सदृश सौम्य होगा। वह कान्तिमान, देखने में प्रिय एवं सुरूप होगा। १०५-तए णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो पढमे दिवसे ठिइवडियं काहिंति, बिइयदिवसे चंदसूरदंसणियं काहिति, छठे दिवसे जागरियं काहिति, एक्कारसमे दिवसे वीइक्कते णिवत्ते असुइजायकम्मकरणे संपत्ते बारसाहे दिवसे अम्मापियरो इमं एयारूवं गोग्णं, गुणणिप्फण्णं णामधेज्जं काहिति-जम्हा णं अम्हं इमंसि दारगंसि गडभत्थंसि चेव समाणंसि धम्मे दढपाइण्णा तं होउ णं अम्हं दारए 'दढपइण्णे' णामेणं / तए णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो णामधेज्ज करेहिंति दढपइण्णत्ति / १०५-तत्पश्चात् माता-पिता पहले दिन उस बालक का कुलक्रमागत पुत्रजन्मोचित अनुष्ठान करेंगे। दसरे दिन चन्द्र-सर्य-दर्शनिका नामक जन्मोत्सव करेंगे। / छठे दिन जागरिका--- रात्रि-जागरिका करेंगे। ग्यारहवें दिन वे अशुचि-शोधन-विधान से निवृत्त होंगे। इस बालक के गर्भ में आते ही हमारी धार्मिक आस्था दृढ़ हुई थी, अत: यह 'दृढ़प्रतिज्ञ' नाम से सम्बोधित किया जाय, यह सोचकर माता-पिता बारहवें दिन बालक का 'दृढ़प्रतिज्ञ'-यह गुणानुगत, गुणनिष्पन्न नाम रखेंगे। १०६-तं दढपइण्णं दारगं अम्मापियरो साइरेगट्टवासजायगं जाणित्ता सोभणसि तिहि-करणदिवस-णक्खत्त-मुहुत्तंसि कलायरियस्स उवणेहिति / 106 माता-पिता यह जानकर कि अब बालक आठ वर्ष से कुछ अधिक का हो गया है, उसे शुभ-तिथि, शुभ करण, शुभ दिवस, शुभ नक्षत्र एवं शुभ मुहूर्त में शिक्षण हेतु कलाचार्य के पास ले जायेंगे। १०७-तए णं से कलायरिए तं दढपइण्णं दारगं लेहाइयाओ, गणियप्पहाणाम्रो, सउणरुयपज्जवसाणाम्रो वावत्तरिकलामो सुत्तमो य अत्थरो य करणो य सेहाविहिति, सिक्खाविहिति, तं जहा-लेहं, गणियं, रूवं, णटें, गीयं, वाइयं, सरगयं, पुक्खरगयं, समतालं, जूयं, जणवायं, पासगं, अट्ठावयं, पोरेकच्चं दगमट्टियं, अण्णविहि, पाणविहि, बस्थविहि, दिलेवणविहि, सयणविहि, अज्जं, पहेलियं, मागहियं, गाहं, गीइयं, सिलोयं, हिरण्णजुत्ति, सुवण्णत्ति, गंधत्ति, चुण्णजुत्ति, प्राभरणविहि, तरुणीपडिकम्म, इथिलक्खणं, पुरिसलक्खणं, हयलक्खणं, गयलक्खणं, गोणलक्खणं, कुषकुडलक्खणं, चक्कलक्खणं, छत्तलक्खणं, चम्मलक्खणं, दंडलवखणं, असिलक्खणं, मणिलक्खणं, कागणिलक्खणं, वत्थुविज्ज, खंधारमाणं, नगरमाणं, वत्थुनिवेसणं, वूह, पडिवूह, चारं, पडिचारं, चक्कवूह, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003480
Book TitleAgam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1992
Total Pages242
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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