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________________ 10] [औपपातिकसूत्र कुण्डिकाएँ-कमंडलु, काञ्चनिकाएँ--रुद्राक्ष-मालाएँ, करोटिकाएँ--मृत्तिका या मिट्टी के पात्र-विशेष, वषिकाएँ-बैठने की पटड़ियां, षण्नालिकाएँ-त्रिका ष्ठिकाएँ, अंकुश-देव पूजा हेतु वृक्षों के पत्ते संचीर्ण, संगृहीत करने में उपयोग में लेने के अंकुश, केशरिकाएँ-प्रमार्जन के निमित्त-सफाई करने, पोंछने आदि के उपयोग में लेने योग्य वस्त्र खण्ड, पवित्रिकाएँ-तांबे की अंगूठिकाएँ, गणेत्रिकाएँ-हाथों में धारण करने की रुद्राक्ष-मालाएँ--सुमिरिनियाँ, छत्र-छाते, पैरों में धारण करने की पादुकाएँ, काठ की खड़ाऊएँ, धातुरक्त-गेरू से रंगी हुई-गेरुए रंग की शाटिकाएँ.-धोतियाँ एकान्त में छोड़कर गंगा महानदी में (गंगा के बालुका भाग में) बालू का संस्तारक-बिछौना तैयार कर (गंगा महानदी को पार कर) संलेखनापूर्वक-देह और मन को तपोमय स्थिति में संलीन करते हुए--शरीर एवं कषायों को-विराधक संस्कारों एवं भावों को क्षीण करते हुए आहार-पानी का परित्याग कर, कटे हुए वृक्ष जैसी निश्चेष्टावस्था स्वीकार कर मृत्यु को आकांक्षा न करते हुए संस्थित हों। परस्पर एक दूसरे से ऐसा कह उन्होंने यह तय किया। ऐसा तय कर उन्होंने त्रिदण्ड आदि अपने उपकरण एकान्त में डाल दिये। वैसा कर महानदी गंगा में प्रवेश किया। फिर बालू का संस्तारक तैयार किया। संस्तारक तैयार कर वे उस पर आरूढ--अवस्थित हुए। अवस्थित होकर पूर्वाभिमुख . हो पद्मासन में बैठे / बैठकर दोनों हाथ जोड़े और बोले ८७-"नमोत्थु गं अरहताणं जाव (भगवंताणं, प्राइगराणं, तित्थगराणं, सयंसंबुद्धाणं, पुरिसुत्तमाणं, पुरिससीहाणं, पुरिसवरपुंडरीयाणं, पुरिसवरगंधहत्थीणं, लोगुत्तमाणं, लोगनाहाणं, लोगहियाणं, लोगपईवाणं, लोगयज्जोयगराणं, अभयदयाणं, चवखुदयाणं मागवयाणं, सरणदयाणं जीवदयाणं, बोहिदयाणं, धम्मदयाणं, धम्मदेसयाणं, घम्मनायगाणं, धम्मसारहीणं, धम्मवरचाउरंतचवकवट्टीणं, दीवो, ताणं, सरणं, गई, पइट्ठा, अप्पडिहयवरनाणसणधराणं वियदृछाउमाणं, जिणाणं, जावयाणं, तिण्णाणं, तारयाणं, बद्धाणं, बोहयाणं, मुत्ताणं, मोयगाणं, सम्वण्णणं, सब्वदरिसीणं, सिवमयलमख्यमणंतमक्खयमव्वाबाहमपुणरावत्तगं, सिद्धिगणामधेज्जं, ठाणं) संपत्ताणं / नमोत्थु णं समणस्स भगवनो महावीरस्स जाव' संपाविउकामस्स, नमोत्थु णं अम्मास्स परिव्वायमस्स अम्हं धम्मारियस्स धम्मोवदेसगस्स / पुटिव णं अम्हेहिं अम्मडस्स परिवायगस्स अंतिए थूलगपाणाइवाए पच्चक्खाए जावज्जीवाए, भुसावाए अदिण्णादाणे पच्चक्खाए जावज्जीवाए, सब्वे मेहुणे पच्चक्खाए जावज्जीवाए, थूलए परिगाहे पच्चक्खाए जावज्जीवाए, इयाणि अम्हे समणस्स भगवनो महावीरस्स अंतिए सस्वं पाणाइवायं पच्चक्खामो जावज्जीचाए, एवं जाव (सव्वं मुसावायं पच्चक्खामो जावज्जीवाए, सव्वं अविष्णादाणं पच्चक्खामो जावज्जीवाए, सव्वं मेहुणं पच्चक्खामो जावज्जीवाए) सत्वं परिगहं पच्चक्खामो जावज्जीपाए, सवं कोह, माणं, मायं, लोह, पेज्ज, दोसं, कलह, अभक्खाणं, पेसुण्णं, परपरिवायं, परइरई, मायामोसं, मिच्छादसणसल्लं, अकरणिज्ज जोगं पच्चक्खामो जावज्जोवाए, सम्वं असणं, पाणं, खाइम, साइम-चउव्यिहं पि आहारं पच्चक्खामो जावज्जीवाए। जपि य इमं सरीरं इठं, कंतं, पियं, मणुण्णं, मणाम, पेज्ज, थेज्ज, वेसासियं, संमयं, बहुमयं, अणुमयं, भंडकरंडगसमाणं, मा गं सीयं, मा णं उण्ह, मा णं खुहा, मा शं पिवासा, मा गं वाला, मा णं चोरा, मा णं दंसा, मा णं मसगा, मा णं वाइयपित्तिय 1. देखें सूत्र-संख्या 20 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003480
Book TitleAgam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1992
Total Pages242
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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