________________ अम्बर परिव्राजक के सात सौ अन्तेषासो] [17 85 -- "एवं खलु देवाणुप्पिया! अम्हे इमोसे अगामिनाए जाव (छिण्णोवायाए, वोहमद्धाए) अडवीए कंचि देसंतरमणुपत्ताणं से उदए जाव (अणपुग्वेणं परिभुजमाणे) झोणे। तं सेयं खलु देवाणप्पिया! अम्ह इमीसे प्रगामियाए जाव' अडवीए उदगवातारस्स सम्वनो समंता मग्गणगवेसणं करित्तए" ति कटु अण्णमण्णस्स अंतिए एयमलैं पडिसुर्णेति, पडिसुणिता तीसे अगामियाए जाद अडवीए उदगवातारस्स सम्वनो समंता भग्गणगवेसणं करेंति, करिता उदगदातारमलममाणा दोच्चंपि अण्णमण्णं सद्दावेंति, सद्दावेत्ता एवं वयासी--- ___८५-देवानुप्रियो ! हम ऐसे जंगल का, जिसमें कोई गाँव नहीं है, (जिसमें व्यापारियों के काफिले तथा गोकुल ग्रादि का आवागमन नहीं है, जिसके रास्ते बड़े विकट हैं) कुछ ही भाग पार कर पाये कि हमारे पास जो पानी था, (पीते-पीते क्रमश:) समाप्त हो गया / अतः देवानुप्रियो ! हमारे लिए यही श्रेयस्कर है, हम इस ग्रामरहित वन में सब दिशाओं में चारों ओर जलदाता की मार्गणा-गवेषणा--खोज करें। उन्होंने परस्पर ऐसी चर्चा कर यह तय किया। ऐसा तय कर उन्होंने उस गाँव रहित जंगल में सब दिशाओं में चारों ओर जलदाता को खोज की। खोज करने पर भी कोई जलदाता नहीं मिला। फिर उन्होंने एक दूसरे को संबोधित कर कहा ८६-"इह गं देवाणप्पिया! उदगदातारो स्थि, तं णो खलु कप्पइ प्रम्हं अदिण्णं गिण्हित्तए, प्रदिण्णं साइज्जित्तए, तंमा णं प्रम्हे इयाणि प्रावइकालं पि प्रदिण्णं गिण्हामो, अदिण्णं साइज्जामो, मा णं अम्हं तवलोवे भविस्सइ। तं सेयं खलु अम्हं देवाणुपिया ! तिदंडयं कुडियाओ य, कंचणियानो य, करोडियानो य, भिसियानो य, छण्णालए य, अंकुसए य, केसरियाप्रो य, पवित्तए य, गणेत्तियाओ य, छत्तए य, वाहणाम्रो य, पाउयानो य, धाउरत्तानो एगते एडित्ता गंगं महाणई प्रोगाहित्ता वालुयासंथारए संथरित्ता संलेहणाझसियाणं, भत्तपाणपडियाइक्खियाणं, पाम्रोवगयाणं कालं प्रणवकंखमाणाणं विहरित्तए" त्ति कटु अण्णमण्णस्स अंतिए एयमझें पडिसुणेति, अण्णमण्णस्स अंतिए एयमठ्ठ पडिसुणित्ता तिदडए य जाव (कुरियाप्रो य, कंचणियाश्रो य, करोडियामो य, भिसियारो य, छण्णालए य, अकुसए य, केसरियामो प, पवित्तए य, गणेत्तियामो य, छत्तए य, वाहणाश्रो य, पाउयाप्रो य, धाउरत्तानो य) एगते एडेंति, एडित्ता गंग महाणई प्रोगाति, प्रोगाहित्ता वालुप्रासंधारए संथरंति, संथरित्ता बालुयासंथारयं दुहिति, दुरुहिता पुरस्थाभिमुहा संपलियंकनिसण्णा करयल जाव' कटु एवं वयाप्ती ८६-देवानुप्रियो ! यहाँ कोई पानी देनेवाला नहीं है / प्रदत्त-बिना दिया हुआ लेना, सेवन करना हमारे लिए कल्प्य-ग्राह्य नहीं है। इसलिए हम इस समय आपत्तिकाल में भी अदत्त का ग्रहण न करें, सेवन न करें, जिससे हमारे तप-व्रत का लोप-भंग न हो। अतः हमारे लिए यही श्रेयस्कर है कि, हम त्रिदण्ड-तीन दंडों या वृक्ष-शाखाओं को एक साथ बाँधकर या मिलाकर बनाया गया एक दंड, 1. देखें सूत्र यही। 2. देखें सूत्र यही। 3. देखें सूत्र-संख्या 47 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org