________________ परित्राजकों का उपपात [135 प्रस्थ का एक आढक होता है, उसको भाजन, कांस्य-पात्र तथा चौसठ पल का होने से चतु:-षष्टिपल भी कहा जाता है।' भावप्रकाश में आगे बताया गया है कि चार ढक का एक द्रोण होता है। उसको कलश, नल्वण, अर्मण, उन्मान, घट तथा राशि भी कहा जाता है। दो द्रोण का एक शूर्प होता है, उसको कुभ भी कहा जाता है तथा 64 शराव का होने से चतुःषष्टि शरावक भी कहा जाता है / 81 ते णं परिष्वायगा एयारवेणं विहारेणं विहरमाणा बहुइं वासाइं परियायं पाउणंति, बहूई वासाई परियायं पाउणित्ता कालमासे कालं किच्चा उक्कोसेणं बंभलोए कप्पे देवत्ताए उववत्तारो भवंति / तहिं तेसि गई, तहि तेसि ठिई। दस सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता, सेसं तं चेव। ८१-वे परिव्राजक इस प्रकार के प्राचार या चर्या द्वारा विचरण करते हुए, बहुत वर्षों तक परिव्राजक-पर्याय का--परिव्राजक-धर्म का पालन करते हैं। बहुत वर्षों तक वैसा कर मृत्युकाल ग्राने पर देह त्याग कर उत्कृष्ट ब्रह्मलोक कल्प में देव रूप में उत्पन्न होते हैं। तदनुरूप उनकी गति और स्थिति होती है / उनकी स्थिति या प्रायुष्य दस सागरोपम कहा गया है। अवशेष वर्णन पूर्ववत् है / मतं वैद्यैराद्ययस्मान्मतं ततः / कोलद्वयन्तुः कर्षः स्यात्स प्रोक्तः पाणिमानिका। विहाय सर्वमानानि मागधं मानमुच्यते // अक्ष: पिचः पाणितलं किञ्चित्पाणिश्च तिन्दुकम् // त्रसरेणुदुंधैः प्रोक्तस्त्रिशता परमाणुभिः / / विडालपदकं चैव तथा षोडशिका मता। त्रसरेणुस्तु पर्यायनाम्ना वंशी निगद्यते / / करमध्यो हंसपदं सुवर्ण कवलग्रहः / / जालान्तरगतै: सूर्यकरैवशी विलोक्यते / घडवंशीभिर्मरीचि : स्यात्ताभिः षड्भिश्च राजिका // उदुम्बरञ्च पर्यायः कर्षमेव निगद्यते / तिसभी राजिकाभिश्च सर्षपः प्रोच्यते बुधः / स्यात्कर्षाभ्यामर्द्धपलं शुक्तिरष्टमिका तथा / / यवोऽष्टसर्षपैः प्रोक्तो गुजा स्यात्तच्चतुष्टयम् / / शुक्तिभ्याञ्च पलं ज्ञेयं मुष्टिराम्र चतुर्थिका। पभिस्तु रक्तिकाभि: स्यान्माषको हेमधानकौ। प्रकुञ्चः षोडशी बिल्वं पलमेवात्र कीय॑ते / / भाषश्चतुभिः शाणः स्याद्धरणः स निगद्यते // पलाभ्यां प्रसृतिर्शया प्रसृतञ्च निगद्यते / टः स एवं कथितस्तद्वयं कोल उच्चते / प्रसृतिभ्यामञ्जलिः स्यात्कुडवोऽर्द्धशरावकः / क्षद्रको वटकश्चैव द्रङ क्षणः स निगद्यते / अष्टमानञ्च स ज्ञेयः कुडवाभ्याञ्च मानिका / शरावाभ्यां भवेत्प्रस्थश्चतुः प्ररथस्तथाऽऽढकः / शरावोऽष्टपलं तद्वज्ज्ञेयमत्र विचक्षणः / / भाजनं कांस्यपात्रं च चतुः षष्टिपलश्च सः / / -भावप्रकाश, पूर्व खण्ड द्वितीय भाग, मानपरिभाषा प्रकरण-२-४ 2. चतुभिराढोणः कलशो नल्बणोऽर्मणः / उन्मानञ्च घटो राशिद्रोणपर्यायसंज्ञितः / / शूर्पाभ्याच भवेद द्रोणी बाहो गोणी च सा स्मृता / द्रोणाभ्यो शूर्पकुम्भौ च चतुःषष्टि शरावकः // - भावप्रकाश, पूर्व खण्ड, द्वितीय भाग, मानपरिभाषा प्रकरण 15, 16 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org