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________________ 134] [औपपातिकसूत्र तभी ग्राह्य है अन्यथा नहीं। वह परिपूत-वस्त्र से छाना हुआ हो तो उनके लिए कल्प्य है, अनछाना नहीं / वह भी यदि दिया गया हो–कोई दाता उन्हें दे, तभी ग्राह्म है, बिना दिया हुआ नहीं। वह भी केवल पीने के लिए ग्राह्य है, हाथ पैर, चरू-भोजन का पात्र, चमस-काठ की कुड़छी या चम्मच धोने के लिए या स्नान करने के लिए नहीं। __उन परिव्राजकों के लिए मागध तोल के अनुसार एक आढक जल लेना कल्पता है। वह भी बहता हुअा हो, एक जगह बंधा हुया या बन्द नहीं अर्थात् बहती हुई नदी का एक माढक-परिमाण जल उनके जिए कल्प्य है, तालाब आदि का बन्द जल नहीं। (वह भी यदि स्वच्छ हो तभी ग्राह्य है, कीचड़युक्त हो तो ग्राह्य नहीं है / स्वच्छ होने के साथ-साथ वह बहुत प्रसन्न-बहुत साफ और निर्मल हो तभी ग्राह्य है अन्यथा नहीं। वह परियूत--वस्त्र से छाना हुआ हो ती उनके लिए कल्प्य है, अनछाना नहीं। वह भी यदि दिया गया हो—कोई दाता उन्हें दे, तभी ग्राह्य है, बिना दिया हुआ नहीं / ) वह भी केवल हाथ, पैर, चरू--भोजन का पात्र, चमस—काठ की कुड़छी या चम्मच धोने के लिए ग्राह्य है, पीने के लिए या स्नान करने के लिए नहीं। विवेचन--ग्रायुर्वेद के ग्रन्थों में प्राचीन माप-तोल के सम्बन्ध में चर्चाएँ हैं। प्राचीन काल में मागधमान तथा कलिगमान--दो तरह के माप-तोल प्रचलित थे। मागधमान का अधिक प्रचलन और मान्यता थी / विशेष रूप मगध (दक्षिण बिहार) में प्रचलित होने के कारण यह मागधमान कहलाता था। शताब्दियों तक मगध प्रशासनिक दृष्टि से उत्तर भारत का मुख्य केन्द्र रहा। अतएव मागधमान का मगध के अतिरिक्त भारत के अन्यान्य प्रदेशों में भी प्रचलन हुआ। भावप्रकाश में मान के सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा है। वहाँ महर्षि चरक को आधार मानकर मागधमान का विवेचन करते हुए परमाणु से प्रारम्भ कर उत्तरोत्तर बढ़ते हुए मानों-परिमाणों की है। वहाँ बतलाया गया है "तीस परमाणुओं का एक त्रसरेणु होता है। उसे वंशी भी कहा जाता है। जाली में पड़ती हई सूर्य की किरणों में जो छोटे-छोटे सूक्ष्प रजकण दिखाई देते हैं, उनमें प्रत्येक की संख्या प्रसरेण या वंशी है। छह त्रसरेणु की एक मरीचि होती है। छह मरीचि की एक राजिका या राई होती है। तीन राई का एक सरसों, पाठ सरसों का एक जौ, चार जो कि एक रत्ती, छह रत्ती का एक मासा होता है। मासे के पर्यायवाची हेम और धानक भी हैं। चार मासे का एक शाण होता है, धरण और टंक इसके पर्यायवाची हैं। दो शाण का एक कोल होता है। उसे क्षुद्रक, वटक एवं द्रङ क्षण भी कहा जाता है। दो कोल का एक कर्ष होता है। पाणिमानिक, अक्ष, पिचु, पाणितल, किंचित्पाणि, तिन्दुक, विडाल-पदक, षोडशिका, करमध्य, हंसपद, सुवर्ण, कवलग्रह नथा उदुम्बर इसके पर्यायवाची हैं / दो कर्ष का एक अर्धपल (प्राधा पल) होता है। उसे शूक्ति या अष्टामिक भी कहा जाता है। दो शक्ति का एक पल होता है / मुष्टि, आम्र, चतुर्थिका, प्रकुच, षोडशी तथा बिल्व भी इसके नाम हैं। दो पल की एक प्रसूति होती है, उसे प्रसृत भी कहा जाता है। दो प्रसूतियों की एक अंजलि होती है / कुडव, अर्ध शराबक तथा अष्टमान भी उसे कहा जाता है। दो कुडव की एक मानिका होती है / उसे शराव तथा अष्टपल भी कहा जाता है / दो शराव का एक प्रस्थ होता है अर्थात् प्रस्थ में 64 तोले होते हैं / पहले 64 तोले का ही सेर माना जाता था, इसलिए प्रस्थ को सेर का पर्यायवाची माना जाता है / चार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003480
Book TitleAgam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1992
Total Pages242
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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