________________ 126 ..औषपातिकमन्त्र वाउभविखणो, सेवालमक्खिणो, मूलाहारा, कंदाहारा, तयाहारा, पत्ताहारा, पुप्फाहारा, बोयाहारा, परिसडियकंदमूलतयपत्तपुप्फलाहारा, जलाभिसेयकठिणगायभूया, पायावणाहि, पंचगितावेहि, इंगालसोल्लियं, कण्डुसोल्लियं, कटुसोल्लियं पिव अप्पाणं करेमाणा बहूई वासाई परियागं पाउणंति, बहूई वासाई परियागं पाउणिता कालमासे कालं किच्चा उक्कोसेणं जोइसिएसु देवेसु देवत्ताए उववत्तारो भवति / पलिग्रोवमं वाससयसहस्समन्भहियं ठिई। पाराहगा ? णो इणढे समझें / सेसं तं चेव / ७४–गंगा के किनारे रहने वाले वानप्रस्थ तापस कई प्रकार के होते हैं जैसे-होतृकअग्नि में हवन करने वाले, पोतक--वस्त्र धारण करने वाले, कौतक-पृथ्बी पर सोने वाले, यज्ञ करने वाले, श्राद्ध करने वाले, पात्र धारण करने वाले कुण्डी धारण करने वाले श्रमण, फल-भोजन करने वाले, उन्मज्जक-पानी में एक बार डुबकी लगाकर नहाने वाले, सम्मज्जक—बार-बार डुबकी लगाकर नहाने वाले, निमज्जक—पानी में कुछ देर तक डूबे रहकर स्नान करने वाले, संप्रक्षालकमिट्टो आदि के द्वारा देह को रगड़कर स्नान करने वाले, दक्षिणकूलक—गंगा के दक्षिणी तट पर रहने वाले, उत्तरकूलक—गंगा के उत्तरी तट पर निवास करने वाले, शंखध्मायक तट पर शंख बजाकर भोजन करने वाले, कूलमायक-तट पर खड़े होकर, शब्द कर भोजन करने वाले, मृगलुब्धक व्याधों की तरह हिरणों का मांस खाकर जीवन चलाने वाले, हस्तितापस हाथी का वध कर उसका मांस खाकर बहुत काल व्यतीत करने वाले, उद्दण्डक-----दण्ड को ऊंचा किये घूमने वाले, दिशाप्रोक्षी-- दिशाओं में जल छिड़ककर फल-फल इकट्ठे करने वाले, वक्ष की छाल को वस्त्र की तरह धारण करने वाले, बिलवासी--बिलों में भूगर्भ ग्रहों में या गुफाओं में निवास करसे वाले, वेलवासी --. समुद्रतट के समीप निवास करने वाले, जलवासी-पानी में निवास करने वाले, वृक्षमूलक-वृक्षों की जड़ में निवास करने वाले, अम्बुभक्षी-जल का आहार करने वाले, वायुभक्षी--वायु का ही आहार करने वाले, शैवालभक्षी—काई का आहार करने वाले, मूलाहार मूल का आहार करने वाले, कन्दाहार-कन्द का आहार करने वाले, त्वचाहार--वृक्ष की छाल का आहार करने वाले, पत्राहारवृक्ष के पत्तों का आहार करने वाले, पुष्पाहार फूलों का आहार करने वाले, बीजाहार--बीजों का पाहार करने वाले, अपने आप गिरे हुए, पृथक् हुए कन्द, मूल, छाल, पत्र, पुष्प तथा फल का आहार करने वाले, पंचाग्नि की आतापना से अपने चारों ओर अग्नि जलाकर तथा पाँचवें सूर्य की प्रातापना से अपनी देह को अंगारों में पकी हुई-सी, भाड़ में भुनी हुई-सी बनाते हुए बहुत वर्षों तक वानप्रस्थ पर्याय का पालन करते हैं। बहत वर्षों तक वानप्रस्थ पर्याय का पालन कर मृत्यू-काल पाने पर देह त्याग कर वे उत्कृष्ट ज्योतिष्क देवों में देव रूप में उत्पन्न होते हैं / वहाँ उनकी स्थिति एक लाख वर्ष अधिक एक पल्योपम-प्रमाण होती है / क्या वे परलोक के आराधक होते हैं ? नहीं, ऐसा नहीं होता। अवशेष वर्णन पूर्व की तरह जानना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org