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________________ 118] [औपपातिकसूत्र गौतम ! वह मोहनीय कर्म का बंध करता है, वेदनीय कर्म का भी बंध करता है..., किन्तु (सूक्ष्मसंपराय नामक दशम गुणस्थान में) चरम मोहनीय कर्म का वेदन करता हुमा जीव वेदनीय कर्म का ही बंध करता है, मोहनीय का नहीं। एकान्तबाल : एकान्त सुप्त का उपपात ६७-जीवे णं भंते ! असंजए, अविरए, अपडिहयपच्चक्खायपावकम्मे, सकिरिए, असंवुडे, एगंतवंडे, एगंतबाले, एगंतसुत्ते, प्रोसण्णतसपाणघाई कालमासे कालं किच्चा रइएसु उववज्जति ? .. हंता उववज्जति। * ६७-भगवन् ! जो जीव असंयत–संयमरहित है, अविरत है, जिसने सम्यक्त्वपूर्वक पापकर्मों को प्रतिहत नहीं किया है—हलका नहीं किया है, नहीं मिटाया है, जो सक्रिय है--(मिथ्यात्वयुक्त) कायिक, वाचिक एवं मानसिक क्रियाओं में संलग्न है, असंवृत है—संवर रहित है-अशुभ का निरोध नहीं किये हुए हैं, एकान्त दण्ड है-पापपूर्ण प्रवृत्तियों द्वारा अपने को तथा औरों को सर्वथा दण्डित करता है, एकान्तबाल है-सर्वथा मिथ्यादृष्टि है तथा एकान्तसुप्त-मिथ्यात्व की प्रगाढ निद्रा में सोया हा है; अस-द्वीन्द्रिय आदि स्पन्दनशील, हिलने डुलनेवाले अथवा जिन्हें त्रास का वेदन करते हुए अनुभव किया जा सके, वैसे जीवों का प्राय:-बहुलतया घात करता है--स प्राणियों की हिंसा में लगा रहता है, क्या वह मृत्यु-काल पाने पर मरकर नैरयिकों में उत्पन्न होता है ? . हाँ, गौतम ऐसा होता है। 68- जीवे गं भंते ! असंजए प्रविरए प्रप्पडिह्यपच्चक्खायपावकम्मे इनो चुए पेच्च देवे सिया ? . गोयमा ! प्रत्येगइया देवे सिया, प्रत्थेगइया णो देवे सिया। ...: १८-भगवन जिन्होंने संयम नहीं साधा, जो अवरित हैं-हिंसा, असत्य आदि से विरत नहीं हैं, जिन्होंने प्रत्याख्यान द्वारा पाप-कर्मों को प्रतिहत नहीं किया- सम्यक् श्रद्धापूर्वक पापों का त्याग कर उन्हें नहीं मिटाया, वे यहाँ से च्युत होकर-मृत्यु प्राप्त कर आगे के जन्म में क्या देव होते ' हैं ? क्या देवयोनि में जन्म लेते हैं ? गौतम ! कई देव होते हैं, कई देव नहीं होते हैं / ६९-से केणठेणं भंते ! एवं बुच्चइ-प्रत्थेगइया देवे सिया, अत्थेगइया णो देवे सिया? गोयमा ! जे इमे जीवा गामागर-णयर-णिगम-रायहाणि-खेड-कब्बड-मडंब-दोणमुह-पट्टणासम-संबाह-सण्णिवेसेसु अकामतहाए, अकामछुहाए, अकामबंभचेरवासेणं, प्रकामपण्हाणग-सीयायव"दंसमसंग-सेय-जल्ल-मल्ल-पंकपरितावेणं अप्पतरो का भुज्जतरो वा कालं प्रप्या परिकिलेसंति, अप्पतरो वा भुज्जतरो का कालमासे कालं किच्चा भणयरेसु वाणमंतरेसु वेवलोएसु. देवत्ताए उववत्तारो . भवंति / तहि तेसि गई, तहि तेसि ठिई, तहि तेसि उववाए पण्णत्ते। तेसि णं भंते ! देवाणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003480
Book TitleAgam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1992
Total Pages242
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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