________________ 116] औषपातिकसूत्र प्रदक्षिणा की। वैसा कर भगवान को बन्दन-नमस्कार किया। वन्दन-नमस्कार कर वे बोली"निर्ग्रन्थ प्रवचन सुपाख्यात है......"सर्वश्रेष्ठ है.......इत्यादि पूर्ववत् / " यों कह कर वे जिस दिशा से आई थीं, उसी दिशा की पोर चली गई। इन्द्रभूति गौतम की जिज्ञासा .६२---तेणं कालेषं तेणं समएणं समणस्स भावो महावीरस्स जेठे अंतेवासी इंवभूई पामं अणगारे गोयमगोलणं सत्तुस्सेहे, समचउरंससंठाणसंठिए, बहररिसहणारायसंघपणे, कणापुलगणिषसपम्हगोरे, उग्गतवे, जित्तलो, तत्ततवे, महातवे, घोरतये, उराले, घोरे, घोरगुणे, घोरतबस्सी, घोरबंभचेरवासी, उज्छुढसरीरे, संखित्तविउलतेउलेस्से समणस्स भगवत्रो महावीरस्म मदरसामते उब्लुजाणू, अहोसिरे, झाणकोट्टोवगए संजमेणं तवसा अपाणं भावमाणं विहरह। ६२.-उस काल, उस समय श्रमण भगवान् महावीर के ज्येष्ठ अन्तेवासी गौतमगोत्रीय इन्द्रभूति नामक अनगार, जिनकी देह की ऊँचाई सात हाथी थी, जो समचतुरस्त्र-संस्थान संस्थित थे-- देह के चारों अंशों की सुसंगत, अंगों के परस्पर समानुपाती, सन्तुलित और समन्वित रचनामय शरीर के धारक थे, जो वज्र-ऋषभ-नाराच-संहनन-सुदृढ अस्थि-बन्धयुक्त विशिष्ट-देह-रचनायुक्त थे, कसोटी पर खचित स्वर्ण-रेखा की आभा लिए हुए कमल के समान जो मौर वर्ण थे, जो उग्र तपस्वी थे, दीप्त तपस्वी-कर्मों को भस्मसात करने में अग्नि के समान प्रदीप्त तप करने वाले थे, तप्त तपस्वी-जिनकी देह पर तपश्चर्या की तीव्र झलक व्याप्त थी, जो कठोर एवं विपुल तप करने वाले थे, जो उराल–प्रबल साधना में सशक्त घोरगुण-परम उत्तम-जिनको धारण करने में अद्भुत शक्ति चाहिए-ऐसे गुणों के धारक, घोर तपस्वी-प्रबल तपस्वी, घोर ब्रह्मचर्यवासी—कठोर ब्रह्मचर्य के पालक, उरिक्षप्तशरीर-दैहिक सार-संम्भाल या सजावट से रहित थे, जो विशाल तेजोलेश्या अपने शरीर के भीतर समेटे हुए थे, भगवान् महावीर से न अधिक दूर न अधिक समीपसमुचित स्थान पर संस्थित हो, घुटने ऊँचे किये, मस्तक नीचे किये, ध्यान की मुद्रा में, संयम और तप से प्रात्मा को भावित करते हुए अवस्थित थे। ६३-तए णं से भगवं गोयमे जायसड्ढे जायसंसए जायकोऊहल्ले, उप्पग्णसडले उप्पणसंसए उप्पण्णकोऊहल्ले, संजायसढे संजायसंसए संजायकोमहल्ले, समुप्पण्मसड्ढे समुप्पणसंसए समुसणकोहल्ले उठाए उठेइ, उद्वाए उद्वित्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छद्र, उदयगरियता समणं भगवं महावीरं तिक्लत्तो आयाहिणं, पयाहिप करेइ, लिक्खुत्तो प्रायाहिणं पयाहिणं करेना वह णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता नच्चासण्णे नाइदूरे सुस्सूसमाणे, णमंसमाणे अभिमुहे विणएणं पंजलिउडे पज्जुवासमाणे एवं वयासी ६३–तब उन भगवान् गौतम के मन में श्रद्धापूर्वक इच्छा पैदा हुई, संशय-अनिर्धारित अर्थ में शंका-जिज्ञासा एवं कुतूहल पैदा हुआ। पुन: उनके मन में श्रद्धा का भाव उमड़ा, संशय उभरा, कुतूहल समुत्पन्न हुआ। वे उठे, उठकर जहाँ भगवान् महावीर थे, पाए / पाकर भगवान् महावीर को तीन बार आदक्षिण-प्रदक्षिणा की, वन्दना-नमस्कार किया। वैसा कर भगवान् के न अधिक समीप न अधिक दूर शुश्रूषा-सुनने की इच्छा रखते हुए, प्रमाण करते हुए, विनयपूर्वक सामने हाथ जोड़े हुए, उनकी पर्युपासना-अभ्यर्थना करते हुए बोले Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org