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________________ 104] [औपपातिकसूत्र ५०--सए णं से कूणिए राया हारोत्थयसुकयरइयवच्छे कुंडलउज्जोबियाणणे मउत्तिसिरए णरसीहे परवई परिदे परवसहे मणुयरायवसभकप्पे अमहियं रायतेयलच्छोए दिप्पमाणे, हस्थिक्वंघबरगए, सकोरंटमल्लदामेणं छत्तेणं धरिज्जमाणेणं, सेयबरचामराहि उद्धवमाणीहि उद्धृध्वमाणीहि वेसमणे चेव गरवई प्रमरवइसपिणमाए इड्ढीए पहियकित्ती हय-गय-रह-पथरजोहकलियाए चाउरंगिणीए सेणाए समणुगम्ममाणमग्गे जेणव पुष्णभद्दे चेइए, तेणेव पहारेत्थ गमणाए।। ५०-तब नरसिंह- मनुष्यों में सिंहसदश शौर्यशाली, नरपति- मनुष्यों के स्वामी-परिपालक, नरेन्द्र-मनुष्यों के इन्द्र-परम ऐश्वर्यशाली अधिपति, नरवषभ- मनुष्यों में वृषभ के समान स्वीकृत कार्य-भार के निर्वाहक, मनुज राजवषभ--नरपतियों में वृषभसदृश परम धीर एवं सहिष्णु चक्रवर्ती तुल्य - उत्तर भारत के आधे भाग को साधने में स्वायत्त करने में संप्रवृत्त, भंभसारपुत्र राजा कणिक ने जहाँ पूर्णभद्र चैत्य था, वहाँ जाने का विचार किया, प्रस्थान किया / अश्व, हस्ती, रथ एवं पैदल-- इस प्रकार चतुरंगिणी सेना उसके पीछे-पीछे चल रही थी। राजा का वक्षस्थल हारों से व्याप्त, सुशोभित तथा प्रीतिकार था। उसका मुख कुण्डलों से उद्योतित-द्युतिमय था / मस्तक मुकुट से देदीप्यमान था। राजोचित तेजस्वितारूप लक्ष्मी से वह अत्यन्त दीप्तिमय था। वह उत्तम हाथी पर प्रारूढ हुअा। कोरंट के पुष्पों की मालाओं से युक्त छत्र उस पर तना था / श्रेष्ठ, श्वेत चंवर डुलाये जा रहे थे / वैश्रमण -यक्ष राज कुबेर, नरपति--चक्रवर्ती, ममरपति-देवराज इन्द्र के तुल्य उसको समृद्धि सुप्रशस्त थी, जिससे उसकी कीति विश्रुत थी। ५१-तएणं तस्स कूणियस्स रण्णो भंभसारपुत्तस्स पुरो महं प्रासा, प्रासवरा, उभयो पासि गागा, गागवरा, पिट्ठो रहसंगल्लि / ____५१भंभसार के पुत्र राजा कूणिक के आगे बड़े-बड़े घोड़े और घुड़सवार थे। दोनों ओर हाथी तथा हाथियों पर सवार पुरुष-महावत थे पीछे रथ-समुदाय था। ५२-तए णं से कणिए राया भंभसारपुत्ते अन्भुग्गभिंगारे, पगहियतालयंटे, सवियसेयच्छत्ते, पधीइयबालवीयणीए, सविड्डीए, सम्धजुतीए सव्वबलेणं, सम्वसमुदएणं, सम्यादरेणं, सम्वविभूईए, सम्वविभूसाए सवसंभमेणं, सवपुष्पगंधमल्लालंकारेणं, सम्वतुडियसहसणिणाएणं, महया इड्ढीए, महया जुईए, महया बलेणं, महया समुदएणं, महया वरतुडियजमगसमगप्पवाइएणं संख-पणव-पडह-भेरि-मल्लरि-खरमुहि हुडुक्क-मुरव-मुअंग-दुदुहि-णिग्घोसणाइयरवेणं चंपाए णयरीए मज्झमज्झेणं णिग्गच्छ। ५२-तदनन्तर भंभसार का पुत्र राजा ऋणिक चम्पानगरी के बीचोंबीच होता हसा आगे बढ़ा। उसके आगे-आगे जल से भरी भारियाँ लिये परुष चल रहे थे। सेवक दोनों ओर पंखे झल रहे थे। ऊपर सफेद छत्र तना था / चंवर ढोले जा रहे थे। वह सब प्रकार की समृद्धि, सब प्रकार की द्युति-प्राभा, सब प्रकार के सैन्य, समुदय---सभी परिजन, समादरपूर्ण प्रयत्न, सर्वविभूति-सब प्रकार के वैभव, सर्वविभूषा—सब प्रकार की वेशभूषा-वस्त्र, आभरण आदि द्वारा सज्जा, सर्वसम्भ्रम-स्नेहपूर्ण उत्सुकता, सर्व-पुष्प गन्धमाल्यालंकार-सब प्रकार के फूल, सुगन्धित पदार्थ, फूलों की मालाएं, अलंकार या फूलों की मालाओं से निर्मित प्राभरण, सर्व तूर्यशब्द-सन्निपात-- Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003480
Book TitleAgam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1992
Total Pages242
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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