________________ प्रस्थान] [103 कुछ विशाल थे, धवल-अति उज्ज्वल, श्वेत थे। उन पर सोने के खोल चढ़े थे। वे हाथी स्वर्ण, मणि तथा रत्नों से--- इनसे निर्मित पाभरणों से शोभित थे। उत्तम, सुयोग्य महावत उन्हें चला रहे थे। उसके बाद एक सौ पाठ रथ यथाक्रम रवाना किये गये। वे छत्र, ध्वज-गरुड आदि चिह्नों से युक्त झण्डे, पताका-चिह्नरहित झण्डे, घण्टे, सुन्दर तोरण, नन्दिघोष-बारह प्रकार की वाद्यध्वनि' से युक्त थे। छोटी छोटी घंटियों से युक्त जाल उन पर फैलाये हुए-लगाये हुए थे। हिमालय पर्वत पर उत्पन्न तिनिश-शीशम-विशेष का काठ, जो स्वर्ण-खचित था, उन रथों में लगा था। रथों के पहियों के घेरों पर लोहे के पट्टे चढ़ाये हुए थे / पहियों की धुराएँ गोल थी, सुन्दर, सदढ़ बनी थीं। उनमें छंटे हुए, उत्तम श्रेणी के घोड़े जुते थे। सुयोग्य, सुशिक्षित सारथियों ने उनकी बागडोर सम्हाल रखी थी। वे बत्तीस तरकशों से सुशोभित थे-एक एक रथ में बत्तीस बत्तीस तरकश रखे थे। कवच, शिरस्त्राण-शिरोरक्षक टोप, धनुष, बाण तथा अन्यान्य शस्त्र उनमें रखे थे। इस प्रकार वे युद्ध-सामग्री से सुसज्जित थे। __तदनन्तर हाथों में तलवारें, शक्तियाँ-त्रिशूलें, कुन्त --भाले, तोमर--लोह-दंड, शूल, लट्ठियाँ भिन्दिमाल--हाथ से फेंके जानेवाले छोटे भाले या गोफिये, जिनमें रखकर पत्थर फेंके जाते हैं तथा धनुष धारण किये हुए सैनिक क्रमश: रवाना हुए आगे बढ़े / विवेचन -चतुरंगिणी सेना, उच्च अधिकारी, संभ्रान्त नागरिक, सेवक, किङ्कर, भृत्य, राजवैभव को अनेकविध सज्जा के साथ इन सबसे सुसज्जित बहुत बड़े जलूस के साथ भगवान् महावीर के दर्शन हेतु राजगृह-नरेश कुणिक, जो बौद्ध वाङमय में अजातशत्रु के नाम से प्रसिद्ध है, जो अपने युग का उत्तर भारत का बहुत बड़ा नपति था, रवाना होता है। जैन आगम-वाङमय में अन्यत्र भी प्रायः इसी प्रकार के वर्णन हैं, जहाँ सम्राट्, राजा सामन्त, श्रेष्ठी आदि भौतिक सत्ता, वैभव एवं समृद्धिसम्पन्न पुरुष भगवान के दर्शनार्थ जाते हैं / प्रश्न होता है, अध्यात्म से अनुप्रेरित हो, एक महान् महान ज्ञानी की सन्निधि में जाते समय यह सब क्यों अावश्यक प्रतीत होता है कि ऐसी प्रदर्शनात्मक, आडम्बरपूर्ण साजसज्जा के साथ कोई जाए ? सीधा-सा उत्तर है, राजा का रुतबा, गरिमा, शक्तिमत्ता जन-जन के समक्ष परिदृश्यमान रहे, जिसके कारण राजप्रभाव अक्षुण्ण बना रह सके। किसी दृष्टि से यह ठीक है पर गहराई में जाने पर एक बात और भी प्रकट होती है। ऐसे महान् साधक, जिनके पास भौतिक सत्ता, स्वामित्व, समृद्धि और परिग्रह के नाम पर कुछ भी नहीं है, जो सर्वथा अकिञ्चन होते हैं पर जो कुछ उनके पास होता है, वह इतना महान, इतना पावन तथा इतना उच्च होता है कि सारे जागतिक वैभवसूचक पदार्थ उसके समक्ष तुच्छ एवं नगण्य हैं / यथार्थ के जगत् में त्याग के प्रागे भोग की गणना ही क्या ! जहाँ त्याग प्रात्म-पराक्रम या शक्तिमत्ता का संस्फोट है, परम सशक्त अभिव्यञ्जना है, वहाँ भोग जीवन के दौर्बल्य और शक्तिशून्यता का सूचक है / अत एव जैसा ऊपर वर्णित हुआ है, भोग त्याग के प्रागे--समक्ष झुकने जाता है। इसलिए कहा जाता है कि जन-जन यह जान सके कि जिस भौतिक विभूति तथा भोगासक्ति में वे मदोन्मत्त रहते हैं, वह सब मिथ्या है, वह वैभव भी, वह मदोन्माद भी। सम्भव है, ऐसा ही कुछ उच्च एवं प्रादर्श भाव इस परम्परा के साथ जुड़ा हो। 1. 1. भभा 2. मउंद 3. मद्दल 4. कडंब 5. झल्लरि 6. हुडक्क 7. कंसाला / 8. काहल 9. तलिमा 10. वंसो 11. संखो 12. पणवो य बारसमो।। -~-औपपातिकसूत्र वृत्ति पत्र 71 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org