________________ 94] [औपपातिकसूत्र ४०-तब भंभसार के पुत्र राजा कूणिक ने बलव्यापृत-सैन्य-व्यापार-परायण-संन्य सम्बन्धी कार्यों के अधिकारी को बुलाया / बुलाकर उससे कहा देवानुप्रिय ! प्राभिषेक्य-अभिषेक-योग्य, प्रधान पद पर अधिष्ठित (राजा की सवारी में प्रयोजनीय) हस्ति-रत्न-उत्तम हाथी को सुसज्ज करायो / घोड़े, हाथी, रज तथा श्रेष्ठ योद्धाओं से परिगठित चतुरंगिणी सेना को तैयार करो। सुभद्रा आदि देवियों-रानियों के लिए, उनमें से प्रत्येक के लिए (अलग-अलग) यात्राभिमुख-गमनोद्यत, जाते हुए यानों-- सवारियों को बाहरी सभाभवन के निकट उपस्थापित करो-तैयार कराकर हाजिर करो। चम्पा नगरी के बाहर और भीतर, उसके संघाटक, त्रिक, चतुष्क, चत्वर, चतुर्मुख, राजमार्ग तथा सामान्य मार्ग, इन सबकी सफाई करायो / वहाँ पानी का छिड़काव कराओ, गोबर आदि का लेप करायो / नगरी के रथ्यान्तर-गलियों के मध्य-भागों तथा प्रापण-बी थियों-बाजार के रास्तों की भी सफाई करायो, पानी का छिड़काव करायो, उन्हें स्वच्छ व सुहावने कराओ। मंचातिमंच--सीढ़ियों से समायुक्त प्रेक्षागृहों की रचना करायो / तरह-तरह के रंगों की, ऊँची, सिंह, चक्र आदि चिह्नों से युक्त ध्वजाएँ, पताकाएँ तथा अतिपताकाएँ, जिनके पारिपार्श्व अनेकानेक छोटी पताकाओं-झंडियों से सजे हों, ऐसी बड़ी पताकाएँ लगवायो। नगरी की दीवारों को लिपवायो, पुतवाओ। उन पर गोरोचन तथा सरस--पार्द्र लाल चन्दन के पांचों अंगुलियों और हथेली सहित हाथ के छापे लगवायो। वहाँ चन्दन कलश-चन्दन से चित मंगल-घट रखवाओ। नगरी के प्रत्येक द्वार भाग को चन्दन-कलशों और तोरणों से सजवाओ। जमीन से ऊपर तक के भाग को छूती हुई बड़ी-बड़ी, गोल तथा लम्बी अनेक पुष्पमालाएँ वहाँ लगवायो। पाँचों रंगों के सरस-ताजे फलों से उसे सजवायो, सुन्दर बनवायो। काले अगर, उत्तम कुन्दरुक, लोबान तथा धूप की गमगमाती महक से वहाँ के वातावरण को उत्कृष्ट सुरभिमय करवादो, जिससे सुगन्धित धुएँ की प्रचुरता से वहाँ गोल-गोल धूममय छल्ले बनते दिखाई दें। ___ इनमें जो करने का हो, उसे करके–कर्मकरों, सेवकों, श्रमिकों आदि को आदेश देकर, तत्सम्बन्धी व्यवस्था कर, उसे अपनी देखरेख में संपन्न करवा कर तथा जो दूसरों द्वारा करवाने का हो, उसे दूसरों से करवाकर मुझे सूचित करो कि आज्ञापालन हो गया है—प्राज्ञानुरूप सब सुसंपन्न हो गया है / यह सब हो जाने पर मैं भगवान् के अभिवंदन हेतु जाऊँ। ४१-तए णं से बलवाउए कूणिएणं रण्णा एवं वुत्ते समाणे हट्टतुट्ठ जाव' हियए करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कटु एवं वयासी-सामित्ति आणाए विणएणं वयणं पडिसुणेइ, पडिसुणिता एवं हस्थिवाउयं पामतेइ, पामतेता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! कणियस्स रण्णो भंभसारपुत्तस्स प्राभिसेक्कं हत्थिरयणं पडिकम्पेहि, हयगयरहपवरजोहकलियं चाउरंगिणि सेणं सण्णाहेहि, सण्णाहेत्ता एयमाणत्तियं पच्चपिणाहि / ४१-राजा कणिक द्वारा यों कहे जाने पर उस सेनानायक ने हर्ष एवं प्रसन्नतापूर्वक हाथ जोड़े, उन्हें सिर के चारों ओर घुमाया, अंजलि को मस्तक से लगाया तथा विनयपूर्वक राजा का आदेश स्वीकार करते हुए निवेदन किया-महाराज की जैसी आज्ञा / 1. देखें सूत्र-संख्या 18 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org